उत्तराखण्ड की जनजातीय भाषाएँ और बोलियाँ –
उत्तराखण्ड जनजाति बहुल राज्य है। इसके विभिन्न क्षेत्रों में बसी विभिन्न जनजातियाँ विभिन्न प्रकार की संस्कृति को धारण करती हैं। प्रत्येक जनजाति की अपनी भाषा और बोलियाँ हैं। जनजातीय भाषा व बोलियों का विवरण निम्नांकित है –

उत्तराखण्ड की प्रमुख जनजातीयां –
जौनसारी –
जौनसार-भावर जनजातीय क्षेत्र में यह बोली प्रचलित है। जौनसारी की तीन बोलियों मानी जाती हैं- जौनसारी, बावरी, कण्डवाणी। जौनसारी की लिपि को बागोई या साँचा कहते हैं। इस लिपि में बारह स्वर और पैंतीस व्यंजन हैं।
मार्च्छा –
चमोली जिले के वासी भोटियाओं द्वारा यह बोली प्रयोग में लाई जाती है। कर्णप्रयाग के खंपियाणा, गोपेश्वर के घिघराण नैगवाड़, सिलवाणी, चमोली के छिनका, सिण्टौना, जोशीमठ के सिंगधार आदि में बोली जाती है। इसमें दो लिंग और दो वचन हैं। कर्ता कारक एकवचन शब्द पर ‘न’ विभक्ति प्रयोग से बहुवचन बनता है।
रंल्वू –
पिथौरागढ़ जनपद की दारमा, ब्यांस, चौन्दास क्षेत्र में बोली जाती है। इस भाषा की कोई लिपि नहीं है। इसमें लिंगभेद नहीं मिलता है। कभी एकवचन और बहुवचन एक से क्रिया रूप व्यवहृत होते हैं। रल्यू बोली में मूल शब्द के आगे ‘म’ या था’ उपसर्ग लगने पर वे विलोम शब्द बन जाते हैं। जैसे जाओ: (खाना) मजमो (न खाना)
राजी –
पिथौरागढ़ और चम्पावत में यह बोली प्रचलित हैं। राजी बोली में ‘अँ’ विवृत्त ह्रस्व पश्च स्वर विशेष रूप में प्रयुक्त होता है, जो अन्य पहाड़ी बोलियों में नहीं मिलता। ‘ह’ ध्वनि का उच्चारण संघोष और अघोष दोनों रूपों में होता है। इसमें अनुनासिकता की प्रवृत्ति मिलती है। ‘र’ ध्वनि का लुण्ठित उच्चारण विद्यमान है, जैसे-खट्त्ये (खट्टा) मिक्के (आँख )
थारू –
उत्तराखण्ड में ऊधमसिंह नगर जनपद के तराई क्षेत्रों सितारगंज-खटीमा तहसील में निवास करने वाली थारू जनजाति ‘थारू’ बोली बोलती है। थारुओं की बोली पश्चिमी हिन्दी की बोलियों कन्नौजी, ब्रज और खड़ी बोली का मिला-जुला रूप है। इसमें अकारान्तता तथा कहीं ब्रज व कन्नौजी की भाँति ओकारान्त औकारन्त भी है।
बोक्सा –
बोक्सा जनजाति की बोली बोक्सा या बुक्सा कहलाती है। अमीर हसन ने इसे ब्रज कुमाऊँनी हिन्दुस्तानी कहा है। ग्रियर्सन इसे कन्नौजी और कुमाऊँनी का मिश्रण कहते हैं। इसमें ब्रज की ओकारान्त प्रवृत्ति विद्यमान है, जैसे-दओ (दिया), गओ (गया) सर्वनामों के तिर्यक रूपता वा, जा मिलते हैं। कर के स्थान पर ‘के’ रूप का प्रयोग होता है। ‘उ’ ध्वनि ‘अ’ में परिवर्तित हो जाती है।
लोक साहित्य –
लोक साहित्य समाज के धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि विभिन्न आयामों के साथ-साथ स्वस्थ मनोरंजन का पक्ष भी अपने में समाहित किए हुए है। लोक साहित्य सृजन का एक सहज, स्वाभाविक और मधुर रूप है, जो लोकरंजन के साथ-साथ समाज में जीवन का संचार करता है। सामाजिक समस्याओं और उनके निदानार्थ निर्णायक तथ्य प्रस्तुत करके लोक साहित्य अपने दायित्व को भी निभाता है।
साहित्य ‘के’ लिखित रूप के विकसित होने के बाद भी उसी के साथ समानान्तर रूप में जनसामान्य में मौखिक साहित्य भी प्रचलित रहा। मौखिक साहित्य को ‘लोक साहित्य’ तथा लिखित साहित्य को ‘परिनिष्ठित साहित्य कहा जाता है। संक्षेप में कहें तो जन साधारण की भाषा व बोली में, मौखिक व परम्परागत रूप से प्रचलित लोकमानस के भावों के आवेग से सभी, निर्वैयक्तिक जीवनानुभूतियों की सजीव अभिव्यक्ति ही लोक साहित्य है।
लोक साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ –
लोक साहित्य श्रुति परम्परा पर आधारित होता है और यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है। किसी व्यक्ति व समूह द्वारा सृजित होने के बाद भी इसमें निर्वैयक्तिकता होती है। इसमें द्विरुक्ति और आवृत्तिमूलकता होती है।
- इसमें नाम परिगणनात्मकता की प्रधानता रहती है।
- इसमें नैसर्गिक सहजता एवं अकृत्रिमता होती है।
- इसमें गेयता व रक्षात्मकता पाई जाती है।
- इसमें शिल्प पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता।
- इसमें समसामयिकता की सटीक अभिव्यक्ति व गतिशीलता होती है।
लोक साहित्य की दृष्टि से सम्पूर्ण उत्तराखण्ड को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है।
- उत्तरी क्षेत्र
- मध्यवर्ती क्षेत्र
- दक्षिणी क्षेत्र
उत्तरी क्षेत्र –
- पिथौरागढ़ (दरमा व्यास) (बोदास) (जोहार) चमोली (नीति माणा)
- इस क्षेत्र में तिब्बती-बर्मी भाषा परिवार की भोटिया चोलियों का लोक साहित्य मिलता है।
- उत्तरकाशी (जाड़ बनेलंग) आदि क्षेत्र।
मध्यवर्ती क्षेत्र –
- सीरा, सोर, गंगोली पाली-पछाऊँ बारामण्डल
- चम्पावत, लोहाघाट, नैनीताल का पर्वतीय, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग, श्रीनगर, पौड़ी कालसी, चकराता गोपेश्वर आदि क्षेत्र।
- इस क्षेत्र में कुमाऊँ मण्डल में कुमाऊँनी तथा गढ़वाल मण्डल में गढ़वाली बोलियों और जौनसारी का लोक साहित्य मिलता है।
दक्षिणी क्षेत्र –
- तराई भाबर के सितारगंज, खटीमा, बनबसा, टनकपुर, हल्द्वानी, रुद्रपुर
- बाजपुर, रामनगर, काशीपुर, हरिद्वार, देहरादून, कोटद्वार आदि।
- इस क्षेत्र में थारू, बोक्सा जनजातियों की बोलियों वाले लोक साहित्य की बहुलता है।
लोक साहित्य, लोक संस्कृति का प्रधान संवाहक होता है। कथ्य और शिल्प अथवा साहित्य के रूप की दृष्टि से उत्तराखण्ड के लोक साहित्य को निम्न भागों में बाँटा गया है।
लोकगीत –
ये गीत जनसाधारण के सुख, दुख, रीति-रिवाज, संस्कृति के गीत होते हैं, जिन्हें मौखिक तथ गेय रूप में अभिव्यक्त किया जाता है। लोक गीत में शिल्प पर विशेष ध्यान नहीं दिया जात इनका उद्देश्य अलंकार छन्द भाषा की दृष्टि से चमत्कारपूर्ण साहित्य रचना नहीं होता बल्कि ये गीत धरती से उगते हैं।
प्रकृति इन्हें पल्लवित, पुष्पित तथा सुरभित करती है। इनमें रचनाकार अज्ञात रहता है। किसी अँचल व संस्कृति की विशेषता बताते प्रतीत होते हैं। इनमें विषय व गायन शैली दो की विविधता मिलती है। उत्तराखण्डी लोक गीतों के विषयगत वर्गीकरण में लोक गीतों प्रायः सभी रूप समाविष्ट हो जाते हैं। अतः विषयगत आधार पर इन्हें निम्न रूप में वर्गीक किया जा सकता है।
धार्मिक गीत, संस्कार गीत, श्रम व कृषि से सम्बन्धी गीत, मेलों, त्यौहारों व उत्सवों के गी परिसंवादात्मक गीत व बालगीत आदि।
लोक कथा –
लोक कथाओं में लोकमानस की सम्पूर्ण भावनाएँ सुख-दुख, हर्ष-विषाद, आशा-निराशा, राग-विराग, आस्था-आकांक्षा आदि समाहित रहती हैं। इनकी शैली सहज, सरस, रोचक व वर्णन प्रधान होती है। इसमें स्वाभाविक प्रेम शृंगार, मूल प्रवृत्तियाँ आशावादिता, उपदेशात्मकता, मंगल भावना, सुखान्तता, रहस्य, रोमांच अलौकिकता आदि का पुट रहता है।
उत्तराखण्ड में लोक कथा के लिए ‘काथ’ (कथा), बाते (बारता), किस्स तथा कथा-कानी.. शब्दों का प्रयोग होता है। देवी-देवताओं व पुराण सम्बन्धी कथाऐं ‘बारता’ कहलाती है। लोक कथाओं को कानि या कहानी कहा जाता है। इन कथाओं में कई तरह की कथाएं पाई जाती हैं- पशु-पक्षी सम्बन्धी, व्रत सम्बन्धी, भूत-प्रेत, प्रकृति सम्बन्धी तथा नीतिपरक व धर्म सम्बन्धी कथाएँ आदि।
लोक गाथाएँ –
सामान्य अर्थों में पारम्परिक भाषा बोली में स्थानीय अथवा प्राचीन आख्यानमूलक गेय पदों को लोक गाथा कहा जाता है। सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में प्रचलित छोटी-बड़ी गाथाओं की संख्या दो सौ से अधिक है। इनमें अप्रामाणिकता, अनलंकृत शैली, टेक पदों की आवृत्ति, अतिमानवीय-पत्र, अतिशयोक्ति मूलकता, वर्णनात्मकता स्थानीयता, कण्ठानुकण्ठ परम्परा आदि लोक गाथाओं की प्रमुख विशेषताएँ हैं। ‘जागरी’, ‘औजी’, ‘चम्प्या’, ‘हुडक्या’, ‘ढोली’, ‘दास’, ‘भाट’, ‘घटेलिया’, ‘रमौलिया’ आदि लोक गाथाओं के गायक हैं।
इन गाथाओं में डमरू, हुड़का, ढोलदमामा आदि कई वाद्ययन्त्रों का प्रयोग होता है। छोटी गाथाओं को ‘गाथा गीत’ कहा जाता है। कई गाथाएँ महाकाव्यात्मक स्वरूप वाली हैं जिनको महाकाव्योन्मुख लोकगाथाएँ कहा जाता है जिनमें प्रमुख हैं-मालूसाही, नन्दा कृष्णलीला, पाण्डव वार्ता, जीतू बगडवाल, रानारौट, गंगानाथ, रमौल, भोलानाथ, हरुसैम गोरिया आदि।
प्रमुख धार्मिक गाथाएँ –
ठुलो ढुस्को, सीताहरण, लंका काण्ड, राम-सुग्रीव मिलन, धनुष यज्ञ, महाभारत जन्मखण्ड, रोविद खण्ड, लक्ष्यभेद, पयाल खण्ड, वनवास खण्ड, राजसूय यज्ञ, नृसिंह अवतार, भक्त प्रहलाद, पाण्डव वनवास, भीम-हिडिम्बा, कृष्ण चन्द्रावली, वाणासुर, सृष्टि की उत्पत्ति आदि प्रमुख है।
वीर गाथाएँ –
वीर गाथाओं के अन्तर्गत नेपाल, डोटी, कुमाऊँ गढ़वाल, तिब्बत, तराई भाबर, दून आदि के कत्यूरी, चन्दशाही शाह, पँवार, गोरखा आदि के क्षेत्रों की गाथाएँ हैं, जिनमें प्रमुख है आसन्दी, धामघौ, बिरमधौ, पीतमघौ, ज्ञानवचन, रामीचन, रतनीचन, विक्रमचन, भारतीचन, मालूशाह, उदैचन आदि।
प्रेम गाथाएँ –
राजूला, मालूसाही, गजूगलारी, शमी, गंगानाथ, माना तथा ‘जीतू भरवा’ की गाथाएँ प्रमुख हैं।
अन्य गाथाएँ –
गोरिधना, सदेई, फ्यूली रौतेली आदि गाथाएँ प्रमुख हैं।
लोक साहित्य के अध्ययन से भूगोल एवं इतिहास की जानकारी भी प्राप्त होती है। जैसे- मालमशाही (मालूशाही) नामक कुमाऊँनी लोक महाकाव्य में हुणदेश से लेकर चित्रशिला के मध्य पड़ने वाले स्थानों का उल्लेख मिलता है। मालमशाही को पढ़ने से गढ़वाली की भौगोलिक स्थिति का ज्ञान हो जाता है। जिस मार्ग से नायक बिराठ तक पहुँचता है बीच में पड़ने वाले स्थानों का वर्णन स्वयं ही आ जाता है।
लोक साहित्य द्वारा वीरों की वंशावलियों के विषय में भी ज्ञान प्राप्त होता है, क्योंकि वीरों से सम्बन्धित कथाएँ एवं लोक गीत नितान्त कपोल कल्पित नहीं होते, उनमें सत्यता भी होती है। लोक कथाओं के द्वारा ही हमें कत्यूरी राजाओं के मूल स्थान का ज्ञान होता है।
लोक साहित्य सामाजिक मूल्यों का संरक्षक होता है। भारतीय संस्कृति का गुरु महिमा का वर्णन गढ़वाली लोक गीतों में प्राप्त होता है।
सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षण की दिशा में लोक साहित्य का योगदान सर्वोपरि है। यही वह साधन है, जो नवयुवकों को रीति-रिवाजों एवं नैतिक मूल्यों के प्रति आस्थावान बनाता है। लोक ● साहित्य समय-समय पर सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक प्रभाव समाज पर डालता है, क्योंकि लोक साहित्य लोक-कल्याणकारी साहित्य है एवं जनमानस का साहित्य है। लोक साहित्य का संग्रह इतिहास, कानून, भाषा विज्ञान इत्यादि के अध्ययन की सामग्री जुटाने में सहायक है।
लोकोक्तियाँ, कहावतें तथा पहेलियाँ –
लोकोक्तियाँ जन साहित्य का महत्त्वपूर्ण अंग हैं। लोक जीवन की वैज्ञानिक व्याख्या के लिए इनका अध्ययन बहुत ही आवश्यक है। लॉर्ड रसैल के अनुसार, लोकोक्ति एक व्यक्ति की विदग्धता और अनेकता का ज्ञान है।
डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल का कथन है कि लोकोक्ति मात्र उक्ति नहीं है, बल्कि लोक की उक्ति है। इसीलिए उसे लोकोक्ति कहते हैं। लोक का कोई भी कथन चाहे वह मुहावरे के रूप में हो चाहे पहेली के रूप में जब तक उसे लोक छाप नहीं मिलती और लोग प्रायः उसे नहीं बोलते तब तक यह लोकोक्ति का वास्तविक रूप नहीं माना जा सकता।
वास्तव में, लोकोक्ति एक ऐसा कथन है, जो किसी के द्वारा कहे जाने पर तथा जनता जनार्दन की कसौटी पर खरा उतरने पर लोकोक्ति का रूप धारण कर लेती है और भाषा की अमूल्य निधि बन जाती है। लोकोक्ति में जीवन का सत्य बड़ी सुन्दरता से प्रकट होता है।
वास्तव में लोकोक्ति में गागर में सागर भरने की प्रवृत्ति काम करती है। डॉ. श्यामसुन्दर दास के मतानुसार, लोकोक्ति में लाघवत्व, अनुभूति और निरीक्षण, सरल भाषा, प्रभावोत्पादक शैली, लोक रंजनता आदि तत्त्व विद्यमान रहते हैं।
गढ़वाली भाषा में लोकोक्तियाँ (परवाणा) बहुत बड़ी संख्या में मिलती हैं जिनसे गढ़वाली भाषा को वास्तविक स्वरूप मिलता है। गढ़वाली में परवाणा तुकान्त तथा अतुकान्त प्रकार की मिलती हैं।
गढ़वाली भाषा में पहेलियाँ (आणा) बहुतायत से मिलती हैं। श्री रामनरेश त्रिपाठी के मतानुसार, पहेलियों का प्रचलन भारत में वैदिक काल से है। गढ़वाल में भी आणा की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। इन पहेलियों का उद्देश्य बुद्धि परीक्षा, मनोरंजन तथा अर्थ गौरव है।