उत्तराखंड की अनुसूचित जाति व जनजातियाँ – 2001 की जनगणना के अनन्तिम आँकड़ों के अनुसार उत्तराखण्ड में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की आबादी क्रमशः 15.17,186 और 2,56,129 है, जोकि कुल जनसंख्या का क्रमशः 17.87 एवं 3.02% है।
उत्तराखंड की अनुसूचित जातियाँ –
उत्तराखण्ड जनजाति बहुल राज्य है, किन्तु यहाँ पहाड़ी भागों में विभिन्न अनुसूचित जातियाँ भी निवास करती हैं जिनमें कोली, टम्टा, शिरकी (शारकी), बारूड़ी (रूड़िया), औजी बाजगी), बाद्दी, ओड़, डाल्या पोरी (पहरी) लौहार, कोली (तेली) आदि प्रमुख हैं। राज्य के मैदानी भागों में हरिजन, धोबी, नाई, धुनिया, गड़ेरिया आदि अनुसूचित जातियाँ भी निवास करती हैं।
उत्तराखंड की प्रमुख अनुसूचित जातियों का विवरण निम्न है –
- ओजी /बाजगी – लगभग सभी पर्वतीय जिलों में
- बड़ी/रूड़िया – लगभग सभी पर्वतीय जिलों में
- डाल्या पोरी/ पहरी – लगभग सभी पर्वतीय जिलों में
- कोली – लगभग सभी पर्वतीय जिलों में
- लौहार – लगभग सभी पर्वतीय जिलों में
- टम्टा – लगभग सभी पर्वतीय जिलों में
- शिरकी/शारकी – लगभग सभी पर्वतीय जिलों में
- बाद्दी – लगभग सभी पर्वतीय जिलों में
- काली / तेली – लगभग सभी पर्वतीय जिलों में
राज्य विधानसभा की कुल 70 सीटों में से 13 सीटें अनुसूचित जातियों के लिए सुरक्षित है। निगमों आदि में अनुसूचित जातियों के लिए 19% आरक्षण का प्रावधान किया गया है। 2001 के एक शासनादेश के अनुसार राजकीय सेवाओं, शिक्षण संस्थाओं, सार्वजनिक उद्यमों,सार्वजनिक उद्यमों निगमों आदि में अनुसूचित जातियों के लिए 19% आरक्षण का प्रावधान किया गया है।
उत्तराखंड विधानसभा की अनुसूचित जातियों की सुरक्षित सीटें –
- ज्वालापुर, भगवानपुर, झबरेड़ा (हरिद्वार)
- बाजपुर (उधमसिंह नगर
- घनसाली (टिहरी)
- थराली (चमोली)
- सोमेश्वर (अल्मोड़ा)
- गंगोलीहाट (पिथौरागढ़)
- राज्य में सर्वाधिक अनुसूचित जाति हरिद्वार में (3,13,976) तथा
- न्यूनतम चम्पावत में (38.098) पाई जाती है।
उत्तराखंड में अनुसूचित जातियों की जनसंख्या एवं प्रतिशत –
जिले का नाम | अनुसूचित जाति की कुल आबादी एवं प्रतिशत | अनुसूचित जाति की कुल आबादी एवं प्रतिशत |
उत्तरकाशी | 67467 (22.87) | 4.92 |
पौड़ी | 106653 (15.30) | 9.32 |
रुद्रप्रयाग | 40311 (17.72) | 0.73 |
टिहरी | 87325 (14.44) | 6.05 |
बागेश्वर | 64524 (25.87) | 2.48 |
अल्मोड़ा | 140430 (22.87) | 5.92 |
पिथौरागढ़ | 106449 (22.03) | 7.87 |
चंपावत | 38098 (16.97) | 11.89 |
हरिद्वार | 113976 (21.70) | 17.4 |
देहरादून | 173448 (13.53) | 18.11 |
नैनीताल | 148184 (19.92) | 21.77 |
उधम सिंह नगर | 162782 (13.17) | 26.86 |
चमोली | 67539 (18.24) | 12.62 |
अनुसूचित जनजातियों का परिचय –
उत्तराखण्ड की अधिकांश जनसंख्या गाँवों में रहती है। पहाड़ी क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व कम है, जबकि मैदानी भागों में जनसंख्या का घनत्व अधिक है। यहाँ की अपनी अलग सांस्कृतिक पहचान है। जातीय विविधता ने इस सास्कृतिक पहचान को और समृद्ध बनाया है, जिसमें सदियों से बसी जनजाति भोटिया (शौका), जौनसारी, थारू, बुक्सा और राजी (बनरीत) शामिल हैं। आर्थिक, सामाजिक, पिछडेपन के बावजूद इन समूहों की अपनी अलग सांस्कृतिक पहचान रही है। अपने अन्तर्जातीय सम्बन्धों के कारण इनका गैर-जनजातियों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध आज आश्चर्य पैदा नहीं करता है।
हालाँकि राज्य की जनजातियों ने गैर-जनजातियों के सम्पर्क में आने के बाद अपनी सांस्कृतिक पहचान को अभी तक बचाए रखा है, फिर भी गैर-जनजाति संस्कृति का भी इन पर गहरा प्रभाव पड़ा है जिससे उनकी सभ्यता, संस्कृति, परम्परा और रीति-रिवाज मी. प्रभावित हुए हैं। लेकिन सुदूर क्षेत्रों में रहने वाले जनजाति समूह सामाजिक आर्थिक स्तर पर पिछड़ेपन के बावजूद आज भी अपनी अलग पहचान बनाए हुए है।
अपने गाँव छोड़कर जिन जनजातियों के लोग शहरों में पहुँच गए हैं, उन्होंने अपनी मूल परम्पराओं और रीति रिवाजों के साथ बाहरी प्रभावों को भी ग्रहण कर लिया है। शहरों में राजी (बनरौत), जनजाति के अलावा सभी जनजातियों के लोग पहुँच गए हैं, जहाँ वे अपने मूल पेशों को छोड़कर अन्य पेशों (व्यवसाय) में चले गए हैं।
उत्तराखण्ड में निवास करने वाली जनजातियों का परिचय इस प्रकार है –
1. बुक्सा –
बुक्सा, उत्तराखण्ड की मुख्य अनुसूचित जनजातियों में से एक है। यह नैनीताल, पौड़ी गढ़वाल तथा देहरादून जिलों की छोटी-छोटी ग्रामीण बस्तियों में पाई जाती है। बुक्सा जनजाति की कुल जनसंख्या का 60% भाग नैनीताल जिले के विभिन्न विकासखण्डों में निवास करता है। जिन क्षेत्रों में यह जनजाति बसी है, उसे भोक्सार कहते हैं।
शारीरिक गठन की दृष्टि से यह जनजाति कद में छोटी और मध्यम, चौड़ी मुखाकृति तथा समतल चपटी नासिका वाली है। साधारणतः पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों अधिक सुन्दर होती है। स्त्रियों में गोल चेहरा, गेहुआ रंग, मंगोल नाक-नक्श स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। विलियम क्रुक ने बुक्सा जनजाति की उत्पत्ति के विषय में कहा है कि ये लोग स्वयं को राजपूतों का वंशज मानते हैं। कुछ लोगों का मत है कि वे दक्षिण से आए, जबकि कुछ उन्हें उज्जैन के निकट धारा नगरी से आया हुआ मानते हैं।
बुक्सा जनजाति का रहन-सहन –
बुक्सा जनजाति की पारिवारिक योजना में स्त्रियों की प्रधानता है। इसी कारण अब भी पुरुष को घर के बाहर भोजन करना होता है। इनके अधिकतर गाँव केले, जामुन एवं शहतूत के पेड़ों से घिरे हुए होते हैं। इनकी झोपड़ियाँ एक सीधी पंक्ति में बनी होती है तथा आमने-सामने झोपड़ियों के मुँह खुलते हैं।इनकी झोपड़ियों के सामने संयुक्त चौड़ा आँगन मिलता है। झोंपड़ियों की पंक्ति में ही बीच-बीच में जानवर एवं भूसा चारे के लिए भी झोपड़ियाँ बनी होती हैं, जिन्हें ये बाड़ा कहते हैं।
क्रय-विवाह पद्धति –
बुक्सा जनजाति में क्रय-विवाह पद्धति आज भी प्रचलित है। वधू प्राप्त करने के लिए वधू मूल्य देय है। बुक्सा जनजाति में कन्या, परिवार की आर्थिक क्रियाओं में सक्रिय सहयोग देती है। विवाह के पूर्व वह परिवार के आर्थिक उत्पादन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। जो राशि विवाह के पूर्व वर पक्ष द्वारा कन्या पक्ष को दी जाती है, वह मालगति कहलाती है। बुक्सा जनजाति में विवाह अधिक आयु में किए जाते हैं, कन्या की विवाह योग्य अवस्था 18-20 वर्ष तथा वर की अवस्था 20-24 वर्ष है। बुक्सा जनजाति में अन्तर्जातीय-बहिर्गोत्रीय विवाह-प्रथा’ प्रचलित है।
बुक्सा जनजाति में पितृसत्तात्मक, पितृवंशीय एवं पितृस्थानीय परिवार पाए जाते हैं। इस जनजाति में संयुक्त तथा वैयक्तिक दोनों प्रकार के परिवार पाए जाते हैं। बुक्सा जनजाति में संयुक्त परिवारों की अपेक्षा वैयक्तिक या मूल परिवार प्रचलित होते जा रहे हैं। मूल परिवार में पति, पत्नी तथा उनके अविवाहित बच्चे ही रहते हैं।
बुक्सा जनजाती की कुछ महत्वपूर्ण बातें –
- जिस क्षेत्र में जनजाति रहती है वह ‘भोक्सार’ कहलाता है।
- देहरादून में बुक्सा को मेहरी या मेहरा कहा जाता है।
- बुक्सा की सबसे बड़ी देवी चामुण्डा देवी (काशीपुर) है।
- दोगण, ढल्ला, गोटरे, मौरो आदि बुक्सा के प्रमुख त्यौहार है।
- बुक्सा चार वर्गों में घंटे है – ब्राह्मण, क्षत्रिय, अहीर, नाई।
बुक्सा समाज –
बुक्सा जनजाति में नातेदारी सम्बन्धी प्रथाओं का बहुत महत्त्व है। परिवार की पुत्रवधू अपने ससुर एवं पति के ज्येष्ठ भ्राता (जेठ) को न तो देख सकती है और न बात कर सकती है। पति के मरने के बाद स्त्रियाँ अपने देवर से प्रायः विवाह कर लेती हैं। अतः बुक्सा जनजाति में देवर-भाभी के मध्य पति-पत्नी सम्बन्ध सम्भावित माना गया है फिर भी देवर-भाभी, जीजा-साली में विवाह से पूर्व यौन सम्बन्ध अवैध माना जाता है।
बुक्सा जनजाति में शादी, तलाक, आपसी झगड़े अपनी बिरादरी की पंचायत द्वारा तय होते है। इनके पंचायती प्रशासन में सबसे बड़ा आदमी तरवल कहलाता है। दस से बीस गाँवों के बीच इस प्रकार की एक बिरादरी पंचायत होती है, परन्तु अब इस प्रकार की पंचायत का महत्त्व कम हो रहा है। इनके स्थान पर नैनीताल जिले में तराई क्षेत्र के अन्तर्गत पंचायती राज की स्थापना की गई तथा ‘बुक्सा परिषद्’ की स्थापना हो गई, जो महत्त्वपूर्ण कार्य कर रही है।
बुक्सा जनजाति धार्मिक मतवाद –
बुक्सा जनजाति में धर्म का पारम्परिक रूप हिन्दू धर्म का ही प्रतिरूप है। ईश्वर में इनकी आस्था है, जिसकी पूजा कई देवी-देवताओं के रूप में की जाती है। शंकर (महादेव), काली माई, दुर्गा, लक्ष्मी, राम एवं कृष्ण की पूजा की जाती है। काशीपुर की चामुण्डा देवी ‘सबसे बड़ी देवी मानी जाती है। व्रत एवं त्यौहार भी हिन्दुओं के समान हैं। होली, दीपावली, दशहरा, जन्माष्टमी इनके प्रमुख त्यौहार हैं। अनेक प्रकार के अन्धविश्वास, जादू-टोने भी बुक्सा जनजाति में प्रचलित है। रोग के प्रति सामान्यतः इनकी यह धारणा है कि झाड़-फूंक करने से यह ठीक हो जाता है।
बुक्सा जनजाति भूत-प्रेत, जादू-टोना में विश्वास करती है। अतः कोई कार्य बिगड़ने, रोग लगने, दुर्घटना होने का कारण ये भूत-प्रेत आदि की अप्रसन्नता मानते हैं। प्रेतात्माओं को खुश करने के लिए मुर्गा, वस्त्रादि निश्चित एकान्त स्थल में रखे जाते हैं और यह विश्वास किया जाता है कि प्रेतात्माएँ उसे ग्रहण करने वहाँ जाती हैं, बकरे की बलि चढ़ाकर उसे देवी या आत्मा के प्रसाद रूप में प्रसन्नतापूर्वक वितरित एवं स्वयं ग्रहण किया जाता है। शक्ति के प्रतीक रूप में बुक्सा लोग पीपल के वृक्ष की पूजा करते हैं।
बुक्सा जनजाति का पेशा –
पेशा तराई का क्षेत्र होने के कारण यहाँ भूमि बहुत उर्वर है और फसल अच्छी होती है। इसी कारण आकर्षित होकर बाहर के लोग भी इस क्षेत्र में बसना चाहते हैं, प्रारम्भ में बुक्सा जनजाति इन्हीं तराई के घने जंगलों में रहती थी तथा जंगलों से प्राप्त लकड़ी, शहद, कन्दमूल, फल, जंगली जानवरों के शिकार आदि तथा पास के तालाबों में मछली पकड़कर जीवन-निर्वाह करने के साथ स्थानान्तरित खेती भी करती थी। धीरे-धीरे जंगलों के कट जाने के कारण बुक्सा, जिनके जीवन की अर्थव्यवस्था जंगलों पर निर्भर थी, परेशान हो गए। जिसके परिणामस्वरूप वे अब केवल खेती तथा खेतों में मजदूरी करने लगे हैं।
भोजन –
चावल और मछली ये बड़े चाव से खाते हैं तथा दाल, रोटी और सब्जी का प्रयोग अपने भोजन में प्रचुरता से करते हैं। पुरुष देशी मदिरा और कच्ची ताड़ी एवं सुल्फे का प्रयोग अधिक मात्रा में करते हैं। पदार्थों एवं द्रव्यों में हुक्का बीड़ी, सिगरेट, सुल्फा एवं शराब का चलन है।
बुक्सा जनजाति की भाषा-बोली –
बुक्सा जनजाति की भाषा में हिन्दी एवं कुमाऊँनी का सम्मिश्रण है, परन्तु जो लोग पढ़ना-लिखना जानते हैं, वे देवनागरी लिपि का ही प्रयोग करते हैं।
2. थारू –
थारू उत्तराखण्ड की पाँच अनुसूचित जनजातियों में से एक है। यह जनजाति नैनीताल से लेकर टनकपुर तक फैली हुई है। थारू जनजाति का जीवन खेती एवं पशुपालन पर आधारित है। इतिहासकारों के अनुसार थारू राजस्थान के मूल निवासी है। थारू किरात वंशज हैं और कई जातियों तथा उपजातियों में विभाजित है।
थारु जनजाती की कुछ महत्वपूर्ण बातें –
- राज्य में सर्वाधिक थारू ऊधमसिंह नगर में निवास करते हैं।
- सामान्यतः किरात वंश का सम्बन्ध चारुओं से माना जाता है।
- थारू जाड़ नामक शराब बनाते हैं।
- थारू मुख्यतः हिन्दू है और ज्येष्ठ या बैसाख माह में बजहर त्यौहार मनाते हैं।
- दीपावली को ये शोक के रूप में मनाते हैं।
कद –
ये लोग कद के छोटे, पीतवर्ण, चौड़ी मुखाकृति तथा समतल नासिका वाले होते हैं, जो मंगोल प्रजाति के लक्षण हैं। वस्तुतः ‘थारू शब्द अपने पड़ोसी समुदायों के लिए विशिष्ट वनवासी जाति, धर्म, संस्कृति, भाषा ग्रामीण लोकजीवन, दर्शन आदि का बोध कराता है। थारू नाम की उत्पत्ति और उसके अर्थ के विषय में विभिन्न मत है। इनकी भाषा हिन्दी तथा नेपाली से प्रभावित है।
थारु जनजाती का रहन-सहन –
थारूओं के घर की दीवारें मिट्टी की नहीं होती हैं। वे मकान बनाने के लिए लकडी, लट्ठे और नरकुल आदि का प्रयोग करते हैं, क्योंकि इन क्षेत्रों में प्रायः बाढ़ आया करती है। इनके मकान उत्तर-दक्षिण और द्वार हमेशा पूर्व की ओर होता है। मकान में प्रवेश द्वार दक्षिण के आखिरी कमरे में होता है। इनमें एक उपजाति है, जिसे उल्टहवा कहते हैं। थारुओं के घर में रसोई और पूजा घर भी उत्तर की ओर आखिरी कमरे में होता है।
थारू जनजाति में बहुपत्नी विवाह प्रचलित है, वैसे अब एक विवाह का प्रचलन भी बढ़ रहा है। इस जनजाति में संयुक्त परिवार की प्रथा है। वृद्ध व्यक्ति परिवार का संरक्षक होता है। इन परिवारों में स्त्रियों को अधिक सम्मान मिलता है।
थारु जनजाती समाज –
थारू जनजाति में नातेदारी व्यवस्था है। करीबी नातेदारों में यौन सम्बन्ध निषिद्ध है। एक थारू पुरुष के सगे छोटे भाई की पत्नी से परिहार होता है, उसी प्रकार एक स्त्री के पति के बड़े भाई से दूरी होती है, यदि किन्हीं त्यौहारों या विशेष अवसरों पर अपनी बात पहुँचानी होती है तो घर के किसी तीसरे सदस्य के द्वारा यह काम होता है। एक स्त्री अपने जेठ (पति के बड़े भाई) को भोजन एवं पेय जल परोस सकती है, परन्तु यह कार्य आदर भाव से होता है।
थारु जनजाती धार्मिक मतवाद –
थारू हिन्दू धर्म को मानते हैं। हिन्दुओं की तरह इनके भी अनेक देवी-देवता हैं। ये लोग तन्त्र-मन्त्र, भूत-प्रेत आदि में भी विश्वास रखते हैं। देवताओं को प्रसन्न रखने के लिए सूअर और बकरी की बलि देते हैं, किन्तु जगन्नाथी देवता पर केवल दूध चढ़ाते हैं।इनके देवी-देवताओं की संख्या लगभग छत्तीस है।
दशहरा, होली, माघ की खिचड़ी, कन्हैया अष्टमी और बजहर इनके प्रमुख त्यौहार हैं। इसके अतिरिक्त ये मकर संक्रान्ति, गुड़िया आदि त्यौहार भी उत्साह के साथ मनाते हैं। होली के दिनों में मंदिरा पी-पीकर ये खूब गाते हैं तथा स्त्रियाँ भी ऐसा ही करती हैं। बजहर नामक त्यौहार बरसात के दिनों में होता है। थारू जनजाति के लोग मृत व्यक्ति के शव को जलाने के बदले दफनाते हैं।
थारु जनजाती का पेशा –
थारुओं का प्रमुख व्यवसाय तथा आय का स्रोत कृषि है। इसके अतिरिक्त मछली का शिकार दूसरा आवश्यक कार्य है, जो व्यवसाय तो नहीं कहा जा सकता, पर पारिवारिक आय को बढ़ाने में सहायक हैं। जंगली क्षेत्रों से लगे हुए ग्रामों में थारू शिकार के भी शौकीन हैं, जिसमें यह प्राय: पाड़ा, चीतल, सूअर तथा अन्य जंगली जानवरों का शिकार करते हैं।
स्वभाव –
अधिकतर थारू स्वभाव से सुस्त एवं ढीले होते हैं, जितनी उर्वर जमीन उनको खेती के लिए प्राप्त है, उसके अनुपात में उनकी उपज अत्यधिक कम है, जिसका कारण प्रमुख रूप से प्राचीन कृषि यन्त्र व प्रविधियाँ हैं। फसल के बोने से लेकर बाजार में बेचने तक के सभी ढंग परम्परात्मक हैं और फलस्वरूप थारुओं की कृषि से प्राप्त आय उनको जीवित रखने भर के लिए ही पर्याप्त होती है।
थारू जनजाति की ग्रामीण अदालते होती हैं। इस प्रसंग में यह जनजाति भी बड़ी कट्टरपन्थी है। मद्यप पंचगण मंदिरा के घूँट के साथ तर्क वितर्क करते हैं। इस प्रकार न्याय में भी मंदिरा की प्रमुख भूमिका रहती है। ‘याद’ की विभिन्न धाराओं पर प्रश्नों की झड़ी लग जाती है। निर्णय में नीर-क्षीर का विवेक दिखाई पड़ता है। पराजित पक्ष को शारीरिक और आर्थिक दण्ड सहना पड़ता है। कारण यह है कि बिरादराना निर्णय की किसी अन्य न्यायालय में अपील असम्भव है।
यह रूढिगत आस्था इनके समाज में घर किए हुए है। बदलती हुई परिस्थितियां में अब तो सरकारी अदालतों के दरवाजों पर भी दस्तक दी जाने लगी है। ग्राम्य स्तरीय दलगत नीति से थारू पंचायत की नीर-क्षीर विवेक की पवित्र परम्परा अब विषाक्त हो चुकी है। पारम्परिक लोकास्था की दीवारें दरक चुकी हैं। स्वार्थमूलक शक्ति एषण ने जड़ पकड़ ली है। आज का थारू ग्राम्य जीवन का आदर्श स्वार्थपूर्ण कटुता के विषाक्त यथार्थ में परिणत हो चुका है।
थारु जनजाती की समस्याएँ –
थारुओं की अनेक समस्याएँ हैं, जिनमें मुख्य रूप से अशिक्षा, अकाल मृत्यु आदि हैं। ऋणग्रस्त रहना भी थारुओं की एक बड़ी समस्या है। वर्षा के दिनों में बाढ़ आने से वे बेघर हो जाते हैं। जानवरों की मृत्यु बड़ी संख्या में हो जाती है तथा तमाम बीमारियों का उदय होता है। पेयजल व आवागमन के साधनों की कमी, कच्चे रास्तों की दुर्गमता, विद्युतीकरण, शिक्षा, बाल विकास आदि अनेक ऐसी समस्याएँ हैं, जिनके अभाव में थारू जनजाति के तमाम गाँव पिछडेपन का जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
थारु जनजाती की भाषा-बोली –
थारू जनजाति के लोग पहाड़ी बोली का प्रयोग करते हैं। वैसे उन्हें हिन्दी तथा नेपाली भाषा का ज्ञान भी है। थारू अन्य समुदायों से भाषायी प्रयोग में सहजता का अनुभव करते हैं।
जनजातियों के कल्याण के लिए योजना –
थारू एवं दूसरी जनजातियों के कल्याण के लिए समाज कल्याण विभाग की विभिन्न योजनाएं चलाई जा रही है तथा एकीकृत जनजाति विकास परियोजनाओं द्वारा लाभ पहुंचाने की चेष्टा की जा रही है। इसके द्वारा शैक्षिक कार्यक्रम, आर्थिक उत्थान, स्वास्थ्य एवं आवास सम्बन्धी योजनाएँ, स्पेशल कम्पोनेण्ट प्लान आदि प्रमुख रूप से शामिल हैं। इन योजनाओं का लाभ थारू जनजाति के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन पर निरन्तर पड़ रहा है तथा इस जनजाति का भविष्य उज्वल दिखाई पड़ रहा है।
3. भोटिया –
मोटिया शब्द की उत्पत्ति ‘भोट’ अथवाट से हुई है। उत्तराख नेपाल की सीमा से संलग्न पर्वतीय क्षेत्रमूट या नाम से विख्यात है। इसके अन्तर्गत अल्मोड़ा जिले में उत्तर-पूर्व आसकोट तथा दरमा तहसीलें आती है। कभी-कभी मीटिया निवासियों को मोटान्तिक शब्द से भी जाना जाता है। भोटिया जनजाति मध्य हिमालय की सर्वाधिक जनसंख्या वाली जनजाति है। में इस जनजाति को मोटा, किन्नौर में ‘भोट’ भूटान में भुटानी और गढ़वाल व कुमाऊँ में मोटिया कहा जाता है।
मोटियों के कई स्थानीय नाम है। उदाहरणस्वरूप उत्तरकाशी में गंगा घाटी में निवास करने वाले मोटिया जाड़ कहलाते हैं। तथा चमोली के भोटिया मारछा’ तथा ‘तोलछा’ नाम से जाने जाते हैं। जबकि पिथौरागढ़ के भोटिया ‘जोहारी’ और ‘शौका’ कहलाते है। मारच्छा तोलच्छा, जाड़, शौका तथा जौहारी भोटिया अलग-अलग घाटियों तथा ऊँचाई वाले क्षेत्रों में निवास करते हैं।
भोटिया जनजाति का रहन-सहन –
भोटिया जनजाति तिब्बती एवं मंगोलियन जाति का मिश्रण है। छोटा कद बढ़ा गोल चेहरा, छोटी आँखे, चपटी नाक, गोरा रंग, शरीर पर बालों की कमी आदि इनकी शारीरिक विशेषताएँ है।
भोटिया जनजाति समाज –
मोटिया लोग हिन्दू रीति-रिवाजों को अपनाते हैं। इनमें एकपत्नी प्रथा प्रचलित है। ये लोग परिवार के बजुगों को बहुत सम्मान देते हैं। इनकी अपनी परम्पराएँ हैं, जिनका उल्लंघन करने पर समाज से बाहर कर दिया जाता है। सम्पत्ति का बँटवारा पिता के जीवित रहते हो जाता है। स्त्रियों को भी पुरुषों की ही तरह अधिकार प्राप्त है। ये लोग आषाढ़ का आगमन बड़े उत्साह से मनाते है जिसे ‘जेठ-पुर्जई’ कहा जाता है। बिश्वोदी का त्यौहार महत्त्वपूर्ण है। इनके अधिकतर त्यौहार हिन्दुओं के समान ही हैं।
विवाह सम्बन्ध –
इनमें विवाह सम्बन्ध माता-पिता द्वारा तय किए जाते हैं। विवाह के अवसर पर नृत्य, मनोरंजन, आमोद-प्रमोद, मदिरा आदि का आयोजन होता है। विवाह पूर्णरूप से वैदिक रीति होता है। पत्नी विवाह के पश्चात् पति के घर जाती है। रिश्ता प्रायः वर पक्ष की ओर से जाता है, फिर सगाई होती है। विवाह अधिकतर शीतकालीन अधिवासों में ही किए जाते ही विवाह के अवसर पर हाथों में रूमाल लेकर पौणा नृत्य करते हैं। इनमें विधवा तथा बात विवाह नहीं होते हैं।
भोटिया जनजाति धार्मिक मतवाद –
भोटिया लोग ईश्वर पर पूर्ण आस्था एवं विश्वास रखते हैं। आदिम समुदायों में धार्मिक अन्धविश्वासों तथा बहुदेववाद की जो प्रथाएँ पाई जाती हैं, भोटिया समुदाय में वे सब आज भी देखने को मिलती हैं। भोटिया लोग अन्धविश्वासी तथा भूत-प्रेत के होते हैं। घुमक्कड़, कठोर जीवन के बावजूद ये हँसमुख, साहसी, परिश्रमी, निष्कपट, सहनशील एवं धार्मिक प्रकृति के होते हैं, किन्तु शारीरिक स्वच्छता के प्रति लापरवाह होते हैं।
पोशाक और पहनावा –
ठण्डी जलवायु के कारण पशुओं की खाल एवं ऊन से निर्मित वस्त्र अधिक प्रचलित है। पुरुष ऊनी पाजामा, कमीज एवं टोपी पहनते हैं। स्त्रियों पेटीकोट की तरह का ऊनी घाघरा तथा कन्धों से कमर तक लटका हुआ ‘लया’ नामक विशिष्ट वस्त्र पहनती हैं। स्त्रियों अपनी परम्परागत वेशभूषा लड़वा, घाघरी आंगड़ी पहनती हैं।
‘लड़वा’ ऊन से कमर के नीचे लपेटकर पहने जाने वाले वस्त्र को कहते हैं, जो प्रायः काले, लाल रंग का होता है। पगरी आठ-दस हाथ लम्बा सूती कपड़ा होता है, जिसे लड़वा, घाघरी के ऊपर कमर में लपेटकर बाँधते हैं। मोटिया स्त्रियाँ आभूषण प्रिय होती है। ये ताबीज, हँसुली, मूंगे, पुरानी चवन्नियों की माला, बेसर, नथ, अंगूठियाँ आदि पहनती हैं। कलाई एवं ठोड़ी पर गोदना भी कराती हैं।
भोटिया जनजाती की कुछ महत्वपूर्ण बातें –
- भोटिया स्वयं को राजपूत मानते है।
- भोटिया मूलतः तिब्बती एवं मंगोलियन प्रजाति के हैं।
- विवाह के अवसर पर ये पौड़ा नृत्य करते हैं और हुड़के वाद्ययन्त्र बजाते हैं।
- यह अद्धं घुमन्तू जनजाति है, जिसका निवास स्थान मूलत: पिथौरागढ़ है।
खेती-बाड़ी –
पर्वतीय ढालों पर शीतकाल में हिमपात होने के कारण केवल ग्रीष्मकाल में 4 माह की अवधि में कृषि की जाती है। यहाँ गेहूँ, जौ, मोटे अनाज व आलू मुख्यतः उगाए जाते हैं। पहाड़ी वालों पर सीढ़ीनुमा खेती की जाती है। यहाँ पर झूम (प्रणाली) की तरह ‘काटिल’ विधि से वनों को आग लगाकर भूमि को साफ करके बिना सिंचाई के खेती कर ली जाती है। नदियों के किनारे सिचाई द्वारा खेती की जाती है।
भोटिया जनजाति का पेशा –
भोटिया जनजाति के आर्थिक संगठन में व्यापार, कृषि, पशुपालन, ऊनी, दस्तकारी व अन्य साधन सम्मिलित हैं। प्राकृतिक साधनों के अभाव में भोटिया लोगों ने पशुचारण को आजीविका का मुख्य साधन बनाया है।
अर्थव्यवस्था –
भोटिया लोगों की अर्थव्यवस्था पशुचारण पर आधारित है। इस क्षेत्र में 3,000 से 41,000 मी की ऊँचाई तक मुलायम घास आती है। यहाँ भोटिया लोग भेड़, बकरियाँ व जीबृ (गाय को भाँति पशु) चराते हैं।
यह पशुचारण मौसमी प्रवास पर आधारित है। ग्रीष्मकाल में निचली घाटियों में तापमान काफी ऊँचे हो जाते हैं। तब उच्च ढालों पर पशुचारण किया जाता है। अक्टूबर (शीत ऋतु के आरम्भ) में पुनः ये निचले ढालों व घाटियों में उतर आते हैं।
पोशाक और पहनावा –
भोटिया स्त्रियाँ सुन्दर डिजाइनदार कालीन, दुशाले, दरियों तथा कम्बल बनाती हैं। इसके अतिरिक्त चे ऊनी मौजे, बनियान, दस्ताने, मफलर, टोपे, थैले आदि भी बुनती है। भोटिया स्त्रियाँ गेहूँ, मण्डुए के भूसे से चटाइयाँ एवं टोकरे भी बनाती हैं। इसके अलावा गृह उद्योग में अनाज पीसना, तेल निकालना, गृह-निर्माण, रज्जु निर्माण आदि शामिल हैं। शराब उद्योग भी यहाँ है। पितरों, देवताओं आदि को चढ़ाने के साथ ही अपनी आवश्यकता की पूर्ति हेतु प्रत्येक भोटिया गाँव में शराब बनाई जाती है। कुछ भोटिया मेज, कुर्सी, दरवाजे, जंगल के उपकरण आदि का निर्माण करते हैं।
ब्यापार –
भोटिया अपने तिब्बती पडोसियों से सदियों से परस्पर लेन-देन का व्यापार करते रहे हैं। ये अनुसूचित जाति व जनजातियाँ तिब्बत से ऊन लेकर उन्हें बदले में वस्त्र, नमक, खाद्यान्न आदि देते है, किन्तु वर्तमान में भारत तथा तिब्बत के मध्य सम्पर्क प्रायः ठप हो जाने के कारण अब भोटिया लोग ऊनी वस्त्र, सस्ते सौन्दर्य आभूषण, जड़ी-बूटियों का व्यापार मैदानी भागों में करते हैं। मौसमी प्रवास पर आधारित पशुचारण अपनाने के कारण भोटिया लोगों के आवास अर्द्धस्थायी होते हैं।
मकान –
प्रायः प्रत्येक परिवार के दो घर होते हैं। ग्रीष्मकाल में ये उच्च ढालों पर एवं शीतकाल में घाटियों में निर्मित घरों में रहते हैं। मकान में दो या तीन कमरे होते हैं। ये पत्थर, मिट्टी, घास-फूस, स्लेट आदि से निर्मित होते हैं। इनकी छतें ढालू होती हैं। ये मकान प्रायः जल के निकट बनाए जाते हैं। मकानों में प्रायः खिड़की, दरवाजे नहीं होते। ग्रीष्मकालीन अधिवासों को ‘मैत’ तथा शीतकालीन अधिवासों को ‘गुण्डा’ कहा जाता है।
भोटिया जनजाति की भाषा-बोली –
भोटिया जनजाति मूल रूप से तिब्बत से सम्बन्धित है। इसलिए उनकी भाषा तथा बोली पर तिब्बती भाषा का अत्यधिक प्रभाव है। नेपाली तथा हिन्दी का प्रयोग भीटिया जनजाति अपने दैनिक प्रयोग में सहजता से करती है।
4. जाड़ –
भोटिया जनजाति को अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है; जैसे-चमोली में इन्हें ‘मारछा’ तथा ‘तोलछा’ के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इसी क्रम में उत्तरकाशी जिले में भागीरथी की ऊपरी घाटी में रहने वाली भोटिया जनजाति को जाड़’ कहा जाता है। एटकिन्सन ने इन्हें तिब्बत की हुणिया जाति से सम्बन्धित माना है।
उत्तराखण्ड हिमालय के उत्तरकाशी जनपद की उत्तरी सीमा पर भागीरथी की ऊपरी शाखा, जाह्नवी नदी की घाटी जाड़, जनजाति का निवास क्षेत्र है। इनका मूल गाँव भारत-तिब्बत सीमावर्ती ग्राम जादुंग है। इनके मूलग्राम जादुंग के समीप ही जनक ताल स्थित है, जो एक प्राचीन पूजा-स्थल है। ये लोग अपने को राजा जनक का वंशज मानते हैं।
जाड़ जनजाति का रहन-सहन –
जाड़ जनजाति के पुरुष घुटनों से थोड़ा ऊँचा गर्म चोगा पहनते हैं, जिसे ‘वपकन’ कहा जाता है। नीचे ऊनी धारीदार एवं चूड़ीदार पाजामा पहनते हैं। सिर पर हिमाचली टोपी तथा पैरों में खाल से निर्मित जूता पहनते हैं, जिसे पैन्तुराण’ कहा जाता है। जाड़ स्त्रियाँ पैरों तक लम्बा चोगा पहनती हैं, जिसे कौलक’ कहते हैं। इस कौलक’ के चारों और किनारों में प्राकृतिक रंगों द्वारा चित्रकारी की जाती है। कमर में एक कपड़ा लपेटती हैं, जिसे केरक’ कहा जाता है। इसके साथ ही हिमाचली टोपी व पैरों में पैन्तुराण’ पहनती हैं।
विवाह बन्धन –
विवाह के क्षेत्र में गन्धर्व विवाह की प्रथा प्रचलित है। लड़की को पसन्द कर लेने के पश्चात् लड़का उसे रात्रि में भगाकर अपने घर ले जाता है, दूसरे दिन लड़की के घर वाले अपने कुछ लोगों के साथ लड़के के घर जाते हैं, जहाँ लड़के को डण्डों से पीटते हैं, इसके पश्चात् लड़का लड़की को घर लाकर दूल्हे के माथे के दाएँ ओर तथा दुल्हन के माथे के बाएँ और घी का टीका लगाकर उनको विवाह बन्धन में बाँध दिया जाता है। इनमें कलात्मक अभिरुचि विशेष रूप से पाई जाती है। इनकी भवन-निर्माण कला, चित्रकारी आदि के उत्कृष्ट नमूने इनके मूल ग्रामों-बगोरी, नेलंग आदि में देखे जा सकते हैं।
जाड़ जनजाति समाज –
इस जनजातीय समाज में आधुनिकता का अपेक्षाकृत कम प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इनमें ‘विघटित परिवार व्यवस्था’ पाई जाती है, जिनमें पुत्रों के वयस्क हो जाने पर उन्हें परिवार से अलग कर दिया जाता है। पिता की सम्पत्ति में पुत्रों एवं पुत्रियों का समान अधिकार होता है। इनके समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र चारों वर्ण के लोग पाए जाते हैं, तथापि अधिकांश लोग वैश्य एवं शूद्र जाति के हैं। इस जनजाति के सांस्कृतिक सम्बन्ध तिब्बत से रहे हैं।
जाड़ जनजाति धार्मिक मतवाद –
जाड़ स्त्रियाँ सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक जीवन में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। इनकी स्त्रियों घरेलू उद्योग-धन्धों और व्यापार में पुरुषों की तरह कार्य करती हैं। ये बहुत मेहनती होती है। ये स्त्रियाँ ऊनी वस्त्र, जैसे-‘पट्टू’, ‘थुलमा’, ‘टूमकर’, ‘पखी’, ‘चुटका’, ‘कम्बल’, ‘फाँचा’, ‘आँगडा’ आदि; अत्यन्त कलात्मक ढंग से बनाती है।
त्यौहार –
जाड़ जनजाति के वर्षभर में केवल दो ही त्यौहार होते हैं और इन दोनों त्यौहारों का इनके जीवन में विशिष्ट स्थान है। ‘लौह सर का त्यौहार बसन्त पंचमी के दिन मनाया जाता है। इसे इनके वर्ष का पहला दिन माना जाता है। इस दिन भगवान बुद्ध को प्रसन्न रखने के लिए प्रत्येक घर में झण्डा लगाया जाता है, जिसमें पाँच विभिन्न रंगों के कपड़ों के टुकड़े बाँधे जाते है।
इनका दूसरा प्रमुख त्यौहार ‘शूरगेन’ है, जो भाद्र माह के बीसवें दिन से प्रारम्भ होता है। इस समय तीन दिनों तक देवता के समक्ष भेड़-बकरियों की पूजा की जाती है तथा उसके बाद सम्मिलित रूप से उनकी ऊन उतारी जाती है।
जाड़ जनजाति की भाषा –
बोली इनकी भाषा को रोग्बा कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘निम्न भागों में रहने वाला’ है। उच्च घाटियों में निवास करने वाले जाड़ भागीरथी घाटी में रहने वाले गढ़वाली को गंगाड़ी’ कहकर पुकारते हैं। रोम्बा भाषा गढ़वाली भाषा की अपेक्षा तिब्बती भाषा के अधिक निकट है।
जाड़ जनजाती की कुछ महत्वपूर्ण बातें –
- इन्हें ‘तोलछा’ व ‘मारछा’ के नाम से भी जाना जाता है।
- एटकिन्सन इन्हें तिब्बत की दुनिया जाति से सम्बन्धित मानते हैं।
- इनमें विघटित व्यवस्था पाई जाती है। पुत्र के वयस्क होने पर उसे परिवार से अलग कर देते हैं।
- ये वर्षभर में मात्र दो त्यौहार मनाते हैं-लौहसर व शूरगैन।
5. खस –
प्रदेश उत्तराखण्ड के उत्तर-पश्चिम में स्थित पहाड़ी प्रदेश का नाम है। इसन मसूरी के आस-पास के पर्दों का भाग भी शामिल है। यह बहुत ही समय प्रदेश है। इसे प्राकृतिक सौन्दर्य का भण्डार भी कहा जा सकता है। जलवायु भी बहुत अच्छी है। इस प्रदेश में अधिक जनसंख्या खस जाति तथा पहाड़ी राजपूतों की पाई जाती है।न तथा कोल्टेइम (कोहली देश के लोगों के अछूत लोग) भी यहाँ पाए जाते हैं। कॉल्टडून अधिकतर खस लोगों के सेवक होते हैं। आदिकाल से ये लोग खस लोगों की सेक का |इवसाय अपनाए हुए है, पर आजकल सरकार इनको में पर बल दें। रही है।
खस जनजाति का रहन-सहन –
इन लोगों के कपड़े बहुत सादे होते हैं। गर्मियों में केवल एक लंगोटी पहनकर है समय बिता देते हैं, परन्तु जाड़ों में चुस्त ऊनी पायजामा, लम्बा कुर्ता तथा गोल टोपी पहनते हैं। स्त्रियाँ अपने बालों को ढकने के लिए एक काले रंग के माल का प्रयोग करती है, जिसे ‘दुयाण्ट्’ कहते हैं।
पोशाक और पहनावा –
स्त्रियों को आभूषण का बहुत शौक है। नए-नए आभूषणों के लिए वे लालायित रहती हैं। इनके आभूषण बहुत सुन्दर नहीं होते हैं, नाक में लौंग भी पहनती हैं, कानों में बालियाँ, हाथों में चूड़ियों तथा माला पहनती है।
इनके यहाँ विचित्र रीति-रिवाज हैं। इनमें जातिगत भेदभाव नहीं होता है। ब्राह्मण तथा राजपूतों में सरलता से विवाह सम्बन्ध होते हैं। एक समय में एक स्त्री अनेक पुरुषों की पत्नी बनकर रह सकती है। एक भाई का विवाह हो जाने पर अन्य भाई विवाह नहीं करते हैं। एक ही स्त्री अन्य भाइयों की भी स्त्री समझी जाती है। इस प्रकार के सम्बन्ध को इन लोगों में बुरा नहीं माना जाता है। इसे ये लोग शुभ समझते हैं।
इनका ऐसा विश्वास है कि यदि घर के सभी भाई विवाह कर लें, तो घर का नाश हो जाता है। इसका कारण यह है कि पहाड़ पर कृषि योग्य जमीन की कमी होती है तथा प्रत्येक परिवार के पास थोड़ी-सी ही जमीन होती है जिस पर सम्पूर्ण गृहस्थी का भार होता है। यदि सभी भाई विवाह करने लगे, तो थोड़ी-सी भूमि पर अधिक भार पड़ेगा और आर्थिक व्यवस्था ही बिगड़ जाएगी।
इस प्रदेश की स्त्रियाँ शराब भी पीती हैं। शराब पीने में इन्हें किसी प्रकार का संकोच नहीं होता है। ये बहुत परिश्रमी होती हैं। प्रत्येक कार्य में पुरुषों की सहायता करती है। वृक्षों पर चढ़ना तथा पहाड़ी नदियों को पार करना इनके लिए बहुत सरल होता है।
खस जनजाति समाज –
ये लोग अतिथि सत्कार में बड़े कुशल होते हैं। घर पर मेहमान के आने पर घर की लड़की अथवा अन्य स्त्री बड़े आदर से उसके हाथ-पाँव धोती है। जब खाने के लिए सब प्रकार की वस्तुएँ परोस दी जाती हैं, तो उनमें से सभी प्रकार का भोजन थोड़ा-थोड़ा निकालकर पहले घर की स्त्रियाँ खाती हैं। इसके बाद अतिथि को खाने के लिए कहा जाता है।
यह केवल यह दिखलाने के लिए किया जाता है कि खाने में किसी प्रकार का दोष या विष नहीं है, अगर हो तो पहले वे अपनी जान दे देती हैं। यह दिखलाने के लिए किया जाता है कि खाने में किसी प्रकार का दोष या विष नहीं है, अगर हो तो पहले वे अपनी जान दे देती हैं।
खस जनजाति धार्मिक मतवाद –
इनके अनेक देवी-देवता है, लेकिन प्रमुख रूप से शिव की पूजा होती है। अन्य देवी देवताओं पर बकरे की बलि चढ़ाई जाती है। इनके यहाँ हरियाली का त्यौहार बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। किसी निश्चित स्थान में मेले में सम्मिलित होने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। देवी-देवताओं के मन्दिर में बलि चढ़ाई जाती है। स्त्री-पुरुष साथ-साथ नाचते हैं। हरियाली का त्यौहार वर्षा के आगमन के साथ होता है। यही सबसे प्रमुख त्यौहार है।
खस जनजाति का पेशा –
यहाँ की मुख्य जीविका खेती और पशुपालन है, परन्तु खेती आदिम अवस्था में ही है, क्योंकि पहाड़ों पर खेती करना कठिन है। ये खेत छोटे-छोटे और सीढ़ीनुमा होते हैं। यहाँ के प्रत्येक व्यक्ति को मांस बहुत पसन्द है, चाहे वह खस हो अथवा ब्राह्मण। स्त्रियों को तम्बाकू तथा सिगरेट पीने का बहुत शौक है। समाज में इसे बुरा नहीं माना जाता है।
खस जनजाति की भाषा-बोली –
खस जनजाति के लोग दैनिक प्रयोग में पहाड़ी बोलियों का इस्तेमाल करते हैं। अपने को राजपूत मानने वाली इस जनजाति में हिन्दी तथा गढ़वाली भाषा अत्यधिक लोकप्रिय हैं।
6. राजी –
राजी भी उत्तराखण्ड की एक जनजाति है। इस जनजाति को ‘बनरौत’ के नाम से भी जाना जाता है। यह जनजाति पिथौरागढ़ जिले के धारचूला एवं डीडीहाट विकासखण्डों के किमखोला, चिपलथड़ा, गानागाँव चौरानी, कूना कनयाल तथा जमतड़ी गाँवों में निवास करती है। प्रागैतिहासिक युग में गंगा पठार के पूर्व से मध्य नेपाल तक का क्षेत्र आग्नेयवंशीय कोलविरात जातियों का है। इनके वंशजों को आजकल ‘राजी’ कहा जाता है। राजी मुख्य रूप से जंगलों में रहना पसन्द करते हैं।
जाड़ जनजाती की कुछ महत्वपूर्ण बातें –
- राजी जनजाति अधिकतर पिथौरागढ़ में निवास करती है।
- राजी के प्रमुख देवता बाघनाथ है।
- राजियों के प्रमुख त्यौहार कारक (कर्क) और मकारा (मकर) संक्रान्ति है।
- राजी जनजाति के लोग ‘मुण्डा’ भाषा का प्रयोग करते हैं।
- इनको बनरीत, वनमानुष, वनराउट व जंगल का राजा भी कहा जाता है।
संरचना राजी जनजाति के लोग थारू पुरुष लंगोटी की तरह धोती तथा अंगरखा पहनते हैं। ये बड़ी-बड़ी चोटी भी रखते हैं। महिलाएँ रंगीन लहँगा, चोली तथा ओढ़नी पहनती हैं। इन्हें गोदना गुदवाने का विशेष शौक है।
धार्मिक मतवाद –
अशिक्षित होने के कारण राजी जनजाति के लोग अन्धविश्वासी हैं। जंगलों में रहने के कारण ये लोग जंगल के देवता की पूजा करते हैं। ‘बाघनाथ’ इनके प्रमुख देवता हैं। जादू-टोना, भूत-प्रेत में इनका विश्वास है। ये हिन्दू धर्म के अनुयायी है। पेशा जंगलों में निवास करने के कारण जड़ी-बूटियों से परिचित हैं। ये लोग धान, दालें, तिलहन तथा सब्जियों की खेती करके जीविकोपार्जन करते हैं। भेड़-बकरियाँ भी पालते हैं।
राजी जनजाति की भाषा-बोली –
राजी जनजाति के लोग घरों में बोलचाल में मुण्डा’ भाषा बोलते हैं। घर के बाहर ये लोग कुमाऊँनी भाषा बोलते हैं। इनकी भाषा में तिब्बती तथा संस्कृत भाषा की बहुलता रहती है। राजियों में वधू को क्रय करके विवाह किया जाता है महिलाओं में पुनर्विवाह का प्रचलन अधिक होता है।
7. जौनसारी –
जौनसारी जनजाति गढ़वाल की एक प्रमुख जनजाति है। यह जनजाति भाबर क्षेत्र में निवास करती है। जौनसारी भावर लघु हिमालय का उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र है। इसका पश्चिमी भाग देहरादून जिले में है। इसके अन्तर्गत उत्तर-पूर्व एवं दक्षिण-पूर्व में क्रमशः उत्तरकाशी व टिहरी गढ़वाल क्षेत्र हैं, जिनके अन्तर्गत वाई, बड़कोट, पुरोला, त्यूणी एवं जौनपुर क्षेत्र आते हैं। प्रशासनिक दृष्टि से जौनसार भावर क्षेत्र देहरादून के चकराता और कालसी ब्लॉक क्षेत्र में पड़ता है।
राजी जनजाति का रहन-सहन –
मौसम के अनुसार यहाँ के परिधान अलग-अलग हैं। पुरुष सर्दी में ऊनी कोट तथा ऊनी पाजामा, जिसे सोन्तणु’ कहते हैं, इसके साथ ऊनी टोपी ‘सिकोली पहनते हैं। स्त्रियाँ सर्दी में ऊनी कुर्ता, ऊनी घाघरा, घाटू एवं गर्मियों में सूती घाघरा, कुर्ती कमीज जिसे “झगा‘ कहते हैं, पहनती हैं।
शीतकाल में औरतें कुर्ते के बाहर ऊनी चोली चोल्टी’ पहनती है। आधुनिकता के इस समय में पैण्ट-कोट तथा साड़ी ब्लाउज का प्रचलन बढ़ गया है।
राजी जनजाति समाज –
जौनसार भाबर के परिवार पितृसत्तात्मक हैं। परिवार का मुखिया सबसे बड़ा पुरुष सदस्य होता है, जो परिवार की सम्पत्ति की देखभाल करता है। इनमें संयुक्त परिवार की प्रथा है। लेकिन वर्तमान समय में संयुक्त परिवार क्षीण होते जा रहे हैं।
सामाजिक विभाजन के अनुसार ये लोग प्रायः राजपूत, ब्राह्मण, सुनार, लोहार, बाड़ी, बाजगी, कोल्टा एवं हरिजन जातियों में विभक्त हैं, जिनकी अपनी-अपनी मान्यताएँ हैं। इस जनजाति में बहुपति प्रथा व बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन है। यहाँ महिलाओं की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण है। यहाँ पर दहेज प्रथा का प्रचलन नहीं है। विवाह विच्छेद के लिए पति-पत्नी दोनों को ही समान रूप से अधिकार प्राप्त है।
जौनसारी जनजाती धार्मिक मतवाद –
इस जनजाति का भूत-प्रेतों की पूजा पर विश्वास है। ये लोग डाकिनियों, परियों पर अटूट विश्वास करते हैं। ये लोग धर्मभीरुता व अन्धविश्वास की व्यापक मान्यताओं को लिए हुए हैं। इस जनजाति का एक महत्त्वपूर्ण सर्वमान्य देवता ‘महासू है, जिसे महाशिव का रूप माना जाता है।
जौनसारी जनजाती की कुछ महत्वपूर्ण बातें –
- जौनसारी मंगोल व डोमो प्रजातियों के मिश्रण है।
- जौनसारी में संयुक्त परिवार व पितृसत्तात्मक परिवार पाए जाते हैं।
- इसमें महिलाओं की स्थिति सम्माननीय होती है।
- इनमें बहुपत्ति विवाह का प्रचलन है तथा यह महासू (महाशिव) की आराधना करते हैं।
- इनका प्रमुख तीर्थस्थल ‘हनोल’ है।
इन लोगों की संस्कृति काफी प्राचीन है। जौनसारी जनजाति के लोग अपने को पाण्डवों का वंशज मानते हैं। ये पाँच पाण्डवों को अपना प्रमुख देवता तथा कुन्ती को अपनी देवी मानकर उनकी पूजा करते हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से यहाँ की स्थापत्य कला भी उल्लेखनीय है।
स्थापत्य कला –
स्थापत्य कला की दृष्टि से हनोल, लाखा मण्डल, गबेला के अतिरिक्त अन्य छोटे मन्दिर भी उत्कृष्ट उदाहरण हैं। विस्सु, पाचोई, दिवाली, बैसाखी व माघ का मेला इन लोगों के प्रमुख त्यौहार हैं। इनके प्रमुख नृत्य गीत है तुमकिया, बराड़ी, गण्डिया, सस, रासो, घुमसु, पौवई, पाण्डवलीला तथा झुमैलो। जौनसारियों के गीतों में माँगल, हारूल, घोड़े, शिलोंगु, केदारछाया, गोडवडा, रैणारात, विरसू आदि प्रमुख हैं।
राजी जनजाति का पेशा –
इस जनजाति का मुख्य व्यवसाय कृषि है। महिलाएँ कृषि कार्य में कुशल होती हैं। कारीगरी द्वारा भी ये लोग अपना जीविकोपार्जन करते हैं।
राजी जनजाति की भाषा-बोली –
सांस्कृतिक रूप से प्रबुद्ध जौनसारी जनजाति के लोग घरों में पहाड़ी तथा स्थानीय बोलियों का प्रयोग करते हैं। यह जनजाति हिन्दी भाषा का उपयोग प्रभावी ढंग से करती है। जौनसारी जनजाति द्वारा प्रयुक्त बोली को जौनसारी भी कहा जाता है, जो पहाड़ी बोली की एक उपबोली है।
अनुसूचित जनजातियों के संरक्षण की विधायी व्यवस्था –
भारतीय संविधान में अनुसूचित जनजातियों के लिए कई प्रकार के संरक्षण प्रदत्त हैं। भारतीय संविधान के भाग-II में राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्तों के अन्तर्गत उनके संरक्षण के लिए कई प्रकार के प्रावधान किए गए हैं।
अनुच्छेद-38 में उल्लिखित है कि “राज्य यथासम्भव प्रभावी ढंग से एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था गठित एवं विकसित करने का प्रयास करेगा, जिसमें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की समस्त संस्थाओं का रूप धारण करेगा।
अनुच्छेद 46 के अनुसार, “राज्य देश के कमजोर वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शैक्षिक एवं आर्थिक हितों को विशेष सावधानी से विकसित करेगा तथा सामाजिक अभाव एवं समस्त प्रकार के शोषण से उनकी सुरक्षा करेगा।”
सुरक्षा सम्बन्धी प्रावधान –
- अनुच्छेद-15 (4) द्वारा धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी प्रकार के भेदभाव का निषेध किया गया है।
- इसी अनुच्छेद में खण्ड-4 में यह व्यवस्था है कि राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों एवं सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े नागरिकों की उन्नति एवं प्रगति के लिए कोई भी उपबन्ध बनाने का अधिकार दिया गया है।”
- अनुच्छेद-16 (4) में पदों और नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की गई है।
- अनुच्छेद-19 (5) के अन्तर्गत सम्पत्ति क्रय के मामले में राज्य अनुसूचित जनजातियों के हितों के रक्षार्थ विशेष प्रतिबन्ध लगा सकता है।
- अनुच्छेद-23 में मानवीय व्यापार, बेगार और अन्य इसी प्रकार के बलात श्रम पर प्रतिबन्ध का प्रावधान किया गया है।
- अनुच्छेद-29 (2) में इस बात का प्रावधान है कि किसी भी नागरिक के लिए किसी ऐसी संस्था में प्रवेश की मनाही नहीं होगी, जो राज्य द्वारा रख-रखाव के अन्तर्गत हो या केवल धर्म, जाति, प्रजाति, भाषा का इनमें से किसी आधार पर राज्य निधियों से सहायता प्राप्त कर रही हो।
- अनुच्छेद-164 बिहार, ओडिशा और मध्य प्रदेश के राज्यों में जनजातियों के कल्याण के लिए भार-साधक मन्त्री की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है।
- अनुच्छेद- 330, 332 और 334 में लोकसभा एवं विधानसभाओं में अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है।
- अनुच्छेद-339 (1) के अन्तर्गत राष्ट्रपति राज्यों के अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन और अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के लिए आयोग की नियुक्ति कर सकता है।
आर्थिक विकास सम्बन्धी प्रावधान –
- अनुच्छेद-275 और 339 में अनुसूचित जनजातियों के आर्थिक विकास के लिए प्रावधान किए गए हैं।
- अनुच्छेद-275 के अन्तर्गत संविधान के उपबन्धों की पूर्ति के लिए राज्यों को संघ से अनुदान मिलने की व्यवस्था है।
- अनुच्छेद-339 (2) के अन्तर्गत संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार किसी ऐसे राज्य को ऐसे निर्देश देने तक होगा, जो उस राज्य की अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के लिए निर्देश में आवश्यक बताई गई योजनाओं के बनाने एवं निष्पादन के सम्बन्ध में है।
- संविधान के अनुच्छेद-371 (क) में नागालैण्ड, अनुच्छेद-371 (ख) असम तथा अनुच्छेद–371 (ग) में मणिपुर राज्यों की अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं।
अनुसूचित जाति / जनजाति हेतु अन्य प्रमुख प्रावधान –
- वर्ष 1955 से अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 सम्पूर्ण देश में लागू किया गया।
- नागरिक अधिकार संरक्षण कानून 19 नवम्बर, 1976 से सम्पूर्ण देश में लागू अनुसूचित जाति/जनजाति पर अत्याचारों की रोकथाम हेतु अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति अधिनियम, 1989 बनाया गया तथा देश में 30 जनवरी, 1990 से लागू किया गया।
- अनुसूचित जाति/जनजाति को आर्थिक सहायता देने के लिए अनुसूचित जाति और जनजाति वित्त और विकास निगम की स्थापना की गई।
- 5वीं व 6ठी अनुसूची (भारतीय संविधान) में जनजातियों हेतु प्रशासनिक व्यवस्था की गई है।
उत्तराखण्ड अनु. जाति एवं अनु. जनजाति आयोग –
उत्तराखण्ड अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग अधिनियम, 2003 द्वारा इस आयोग का गठन किया गया, ताकि संविधान के अन्तर्गत अनुसूचित जनजातियों को दिए गए विभिन्न संरक्षणों के कार्यान्वयन का अवलोकन किया जा सके।
आयोग में एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष तथा चार सदस्य हैं। आयोग के सभी सदस्यों की अवधि कार्यभार ग्रहण करने की तारीख से तीन वर्ष के लिए है।
अनु. जाति एवं अनु. जनजाति आयोग के कार्य तथा कर्त्तव्य –
- संविधान के अधीन या तत्समय किसी अन्य विधि के अधीन या राज्य सरकार के किसी आदेश के अधीन अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए उपबन्धित रक्षोपायों से सम्बन्धित सभी मामलों का अन्वेषण और अनुश्रवण करना और ऐसे रक्षोपायों की कार्यप्रणाली का मूल्यांकन करना।
- अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों और रक्षोपायों से वंचित किए जाने के सम्बन्ध में विशिष्ट शिकायतों की जाँच करना।
- अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सामाजिक विकास की योजना प्रक्रिया में भाग लेना, उन पर सुझाव देना और विकास की प्रगति का मूल्यांकन करना।
- राज्य सरकार को रक्षोपायों की कार्यप्रणाली पर वार्षिक और अन्य समय पर, जैसा आयोग उचित समझे, प्रतिवेदन प्रस्तुत करना । अनुसूचित जातियों और जनजातियों के संरक्षण और सामाजिक, आर्थिक विकास के लिए उन रक्षोपायों और अन्य उपायों के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए ऐसे प्रतिवेदन में उन उपायों के सम्बन्ध में, जो सरकार द्वारा किए जाएँ, संस्तुति करना।
- अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के संरक्षण, विकास और अभिवृद्धि के सम्बन्ध में ऐसे अन्य कृत्यों का, जो राज्य सरकार द्वारा उनको निर्दिष्ट किए जाएँ, निर्वहन करना।
- किसी व्यक्ति को बुलाने और उपस्थिति के लिए बाध्य करने व जबरदस्ती शपथ पर उसकी परीक्षा करने।
- किसी दस्तावेज के प्रकटीकरण और पेश किए जाने की अपेक्षा करने।
- शपथ-पत्र पर साक्ष्य प्राप्त करने।
- किसी न्यायालय या कार्यालय से सार्वजनिक अभिलेख या उसकी प्रति की अपेक्षा करने।
- साक्षियों और दस्तावेजों के परीक्षण करने के लिए सम्मन जारी करने। .
- किसी अन्य विषय में, जो विहित किया जाए।
अनु. जाति एवं अनु. जनजाति आयोग की शक्तियाँ –
किसी बात का विचारण करने में सिविल न्यायालय को प्राप्त सभी शक्तियाँ आयोग की धारा 11 की उपधारा (1) के खण्ड (क) में निर्दिष्ट किसी शिकायत पर जाँच करने के सम्बन्ध में प्राप्त होगी।
ऐसे मामले जिनका आयोग संज्ञान नहीं लेता है
जो अनुसूचित जाति/जनजाति बनाम अनुसूचित जाति/जनजाति हो।
- गैर अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति से सम्बन्धित प्रार्थना-पत्र, जिनका सम्बन्ध अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के उत्पीड़न से न हो। ऐसे प्रकरण, जो मुख्यतः राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अधिकार क्षेत्र में आते हों या लिए गए हों।
- जो किसी न्यायालय में विचाराधीन हों।
- जो प्रार्थना-पत्र देने की तिथि से पाँच वर्ष से अधिक पुराने हों।
- सेवा सम्बन्धी मामले, जो सरकारी सेवक द्वारा स्वयं न देकर किसी अन्य सम्बन्धी या
- व्यक्ति के नाम से दिए गए हों। स्थानान्तरण तथा लम्बित विभागीय जाँच के मामले। सेवा सम्बन्धी मामले, जिनमें उपलब्ध विभागीय प्रतिकार न लिया गया हो। सिवाय उन मामलों के जिनमें आयोग को यह लगे कि सुसंगत नियमों का सक्षम स्तर पर अनुपालन न किया जा रहा हो।
- लाइसेंस, परमिट एवं अनुदान आदि दिलाए जाने सम्बन्धी अनुरोध या संस्तुति करने विषयक मामले। सिवाय उन मामलों के जिनमें नियम उल्लंघन आदि के कारण न्याय न मिल रहा हो। ऋण सम्बन्धी मामलों के जिनमें ऋणी द्वारा दूसरे पक्ष से अनुबन्ध किया गया हो।
- श्रमिक संगठनों/यूनियनों / एसोसिएशनों से प्राप्त सन्दर्भ, जो नीति विषयक न होकर व्यक्ति विशेष की शिकायत से सम्बन्धित हों, जिनमें उस व्यक्ति को आयोग को सीधे अनुरोध करने का अवसर प्राप्त हो।