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उत्तराखंड के प्रमुख स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व राजनीतिज्ञ

उत्तराखंड के प्रमुख स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व राजनीतिज्ञ

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व राजनीतिज्ञ –

उत्तराखंड के प्रमुख स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व राजनीतिज्ञ
उत्तराखंड के प्रमुख स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व राजनीतिज्ञ

कालू महरा –

उत्तराखण्ड के इस प्रथम स्वतंत्रता सेनानी का जन्म 1831 में वर्तमान चम्पावत जिले के लोहाघाट के पास स्थित विसुड़ गांव में हुआ था। 1857 के क्रांति के दौरान इन्होंने कुमाऊँ क्षेत्र में गुप्त संगठन (क्रांतिवीर) बनाकर अंग्रेजों के खिलाफ आन्दोलन चलाया। उस समय कुमाऊँ के कमिश्नर हेनरी रैमजे थे। इनकी मृत्यु 1906 में हुई।

बद्रीदत्त पाण्डे –

यद्यपि इनका मूल निवास एवं शिक्षा स्थल अल्मोड़ा था, लेकिन जन्म 15 फरवरी 1882 को कनखल (हरिद्वार) में हुआ था। 1913 से वे अल्मोड़ा से प्रकाशित ‘अल्मोड़ा अखबार ‘ के सम्पादक बने। अंग्रेजी शासन के प्रति तीखे और व्यंग्यात्मक लेखों के कारण तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर ने अखबार को सन 1918 में प्रतिबंधित कर दिया। इसके बाद उन्होंने अल्मोड़ा से शक्ति साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू कर दिया।

कुली उतार, कुली बेगार व कुली बर्दायश आदि प्रथाओं के विरुद्ध आंदोलन में उनके सफल नेतृत्व के लिए उन्हें कुर्माचल केसरी की पदवी से विभूषित किया गया। स्वाधीनता संग्राम के दौरान वे पांच बार जेल गये। अपने जेल प्रवास में उन्होंने कुमाऊँ का इतिहास लिखा।

जीवन में उन्हें दो स्वर्ण पदक मिले थे, जिन्हें उन्होंने 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय देश के सुरक्षा कोष में दे दिया था। 1937 में केंद्रीय एसेम्बली 1946 में उत्तर प्रदेश में कॉउन्सलर और 1955 में लोकसभा सदस्य निर्वाचित हुए। 13 जनवरी सन 1965 को उनका निधन हुआ।

हरगोविन्द पंत –

इनका जन्म 19 मई 1885 को चितई गांव, अल्मोड़ा में हुआ था। कुमाऊँ के कुलीन ब्राह्मणों द्वारा हल न चलाने की प्रथा को 1928 में बागेश्वर में उन्होंने स्वयं हल चलाकर तोड़ दिया। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान वे 1930, 1932 और 1940 में जेल गये। उन्हें अल्मोड़ा कांग्रेस की रीढ़ कहा जाता था।

भारत छोड़ो आन्दोलन के समय अल्मोड़ा में सबसे पहले इन्हीं को नजरबंद किया गया था। 1937 में वे उ. प्र. एसेम्बली, 1946 में प्रांतीय एसेम्बली तथा 1957 में लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए। उनका निधन मई 1957 में हुआ।

बैरिस्टर मुकुन्दीलाल –

इनका जन्म 14 अक्टूबर 1885 को पाटली गाँव (चमोली) में हुआ था। 1913 से 1919 के बीच इंग्लैण्ड में कानून की पढ़ाई के दौरान इनका तिलक से परिचय हुआ और राजनीतिक सक्रियता में वृद्धि हुई। परिणामस्वरूप इंग्लैण्ड से लौटने पर (1919 में) इन्हें गिरफ्तार करके नैनी (इलाहाबाद) जेल में डाल दिया गया।

सन् 1926 में वे स्वराज दल के टिकट पर गढ़वालसे चुनाव जीते थे। 1962 से 1967 तक उन्होंने लैंसडोन विधान सभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। इसके बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया। राजनीति को त्यागने के बाद अपना जीवन ‘गढ़वाली’ साहित्य और कला के पुनरुत्थान में लगा दिया।

गढ़वाल चित्रकला शैली के प्रसिद्ध चित्रकार मौलाराम के चित्रों को खोजकर उन्हें कला जगत में प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँचाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। वर्ष 1969 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘गढ़वाल पेटिंग्स’ भारतीय चित्रकला का अमूल्य ग्रन्थ है। 10 जनवरी, 1982 को उनका निधन हो गया।

खुशीराम आर्य –

इनका जन्म 13 दिसम्बर, 1886 को दौलिया, हल्दूचौड़, नैनीताल में हुआ था। वे आर्यसमाजी विचारधारा के व्यक्ति थे। उन्होंने दलितों में व्याप्त कुप्रथाओं जैसे – बाल विवाह, मदिरापान, छुआछूत आदि की समाप्ति के लिए संपूर्ण कुमाऊँ क्षेत्र में जागरुकता फैलाया।

शिल्पकार सभा का गठन कर शिल्प विद्यालयों का संचालन किया। दलितों को शिल्पकार नाम प्रदान करने में वे अग्रणी रहे। सन 1946 में वे कांग्रेस के टिकट पर विधान सभा के लिए चुने गये और 1967 तक विधानसभा के सदस्य रहे । 5 मई 1971 को उनका निधन हो गया।

बलदेव सिंह आर्य –

इनका जन्म 1912 में पौढ़ी के उमथ गांव में हुआ था। ये एक स्वाधीनता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय जन प्रतिनिधि, राजनेता, समाजसेवी, हरिजनोत्थान को समर्पित तथा गांधीवादी विचारक थे।

सर्वाधिक लम्बी अवधि तक विधायक और मंत्रीपद को सुशोभित करने वाले ये उत्तराखंड के पहले विधायक थे। 1950 में ये सर्वप्रथम प्रोविजनल पार्लियामेन्ट के सदस्य मनोनीत हुए। उसके बाद ये 1952, 57, 62, 74, 8085 में विधानसभा और = 1968 से 1974 तक विधान परिषद के सदस्य रहे। प्रायः सभी बार ये मन्त्रिमण्डल के भी सदस्य रहे। कई वर्षों तक अखिल भारतीय 1 हरिजन सेवक संघ के उपाध्यक्ष रहे। 1995 में इनका देहान्त हो गया।

पं. गोविन्द बल्लभ पंत –

पंत जी का जन्म 10 सितम्बर, 1887 को ग्राम खूंट, जनपद अल्मोड़ा में हुआ था। पं. जवाहर लाल नेहरू जी ने इन्हें ‘हिमायल पुत्र’ की उपाधि से विभूषित किया था। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उनके सहपाठी उन्हें गोविन्द बल्लभ ‘महाराष्ट्र’ कहा करते थे। 1946 में उन्हें उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बनने गौरव प्राप्त हुआ। और इस पद पर दिसम्बर 1954 तक रहे। उनके जीवन से सम्बन्धित प्रमुख घटनाएँ। इस प्रकार हैं

1909 में इलाहाबाद से कानून की डिग्री लेने के बाद उन्होंने काशीपुर में वकालत शुरू की। हिन्दी के प्रचार हेतु 1914 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा की एक शाखा के रूप में काशीपुर में ‘प्रेमसभा’ की स्थापना की थी। इसके बाद 1916 में कुमाऊँ परिषद के गठन में अहम भूमिका निभाई।

1923 में स्वराज्य पार्टी के टिकट पर नैनीताल जिले से संयुक्त प्रांत की विधान परिषद के सदस्य निर्वाचित हुए, जबकि 1927 में उन्हें संयुक्त प्रांत की कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष चुना गया। 29 नवम्बर, 1928 को लखनऊ में साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्शन में नेहरु के प्राणों की रक्षा करते समय गंभीर शारीरिक चोटें आई।

1934 में वे अखिल भारतीय संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष तथा केन्द्रीय विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। 1937 में इनके नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में पहला कांग्रेसी मंत्रिमण्डल बना। 9 अगस्त 1942 को उन्हें कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्यों के साथ मुम्बई में गिरफ्तार किया गया और 31 मार्च 1945 तक अहमदनगर के किले में नजरबंद रखा गया।

1946 में पुनः उत्तरप्रदेश विधानसभा के लिये निर्वाचित हुए और मुख्यमंत्री बने और इस पद पर वे दि. 1954 तक रहे। 10 जन. 1955 को केन्द्रीय कैबिनेट में गृहमंत्री के रूप में सम्मिलित हुए और देहावसान तक इस पद पर पदासीन रहे। 26 जनवरी 1957 को भारत रत्न की उपाधि से सम्मानित किया गया। 7 मार्च, 1961 को पक्षाघात के कारण इनका निधन हो गया।

हर्षदेव औली –

काली कुमाऊँ के शेर के नाम से विख्यात हर्ष देव ओली का जन्म 4 मार्च 1890 को ग्राम गोसानी (खेतीखान ) चम्पावत में हुआ था। इन्होंने कई अखबारों में कार्य किया। कुली उतार, कुली बेगार व कुली बर्दायश आंदोलन में सक्रिय योगदान दिया। 1929 में लाहौर कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में उन्होंने कुमाऊँ क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। 1930 में जंगलात कानून के विरुद्ध सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाया। 5 जून 1940 को नैनीताल में उनका निधन हो गया।

अनुसुया प्रसाद बहुगुणा –

‘गढ़ केसरी’ नाम से विख्यात अनुसुया प्रसाद बहुगुणा का जन्म 18 फरवरी 1894 को पुण्यतीर्थ अनुसुया देवी मे हुआ था। वह एक सफल वकील थे। कुली बेगार तथा स्वतंत्रता आन्दोलन में वे काफी सक्रिय रहे। 1921 में उन्हें गढ़वाल युवा सम्मेलन’ (श्रीनगर) का अध्यक्ष चुना गया था। 1931 में वे जिला बोर्ड के चेयरमैन नियुक्त हुए। 23 मार्च 1943 को उनका देहान्त हो गया।

प्रयागदत्त पंत –

इनका जन्म 1898 में पिथौरागढ़ के हलपाटी चण्डाक में हुआ था। इलाहाबाद से अपनी उच्च शिक्षा पूरी करने के बाद 1921 में असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े और गांव-गांव में जाकर अंग्रेजी कानून और शासन के विरोध में प्रचार करने लगे। इसी बीच सरकार ने कुमाऊँ में धारा 144 और जुबान बन्दी का आदेश जारी किया था।

आदेश का उल्लंघन करने पर उन्हें बन्दी बनाकर एक वर्ष की कड़ी कैद की सजा दी गयी तथा बरेली सेंट्रल जेल में रखा गया। सन् 1935 में अल्प आयु में उनका निधन हो गया।उत्तराखण्ड की धरती पर आन्दोलन की शुरुआत का श्रेय इन्हीं को जाता है।

बिहारी लाल चौधरी –

सारे देश में चुनाव द्वारा एक आम सीट पर निर्वाचित होने वाले वे प्रथम हरिजन सदस्य थे। 1929 में इन्होंने लाहौर के ऐतिहासिक कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया। नमक सत्याग्रह में इन्हें पांच अन्य प्रमुख नेताओं के साथ गिरफ्तार किया गया था। 1936 में प्रान्तीय असेम्बली के लिए आम क्षेत्र से निर्वाचित हुए। 1937 में संयुक्त प्रान्त के कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल पदारूढ़ हुआ तो चौधरी साहब विजय लक्ष्मी पण्डित के संसदीय सचिव नियुक्त हुए। 1940 में 42 वर्ष की आयु में पूना में इनका निधन हो गया।

मोहन सिंह मेहता –

इनका जन्म 1897 में बागेश्वर जिले के बज्यूला ( कत्यूर ) गांव में हुआ था। कत्यूर क्षेत्र में स्वराज प्राप्ति हेतु जन-जागरण में इनकी प्रमुख भूमिका रही। 1921 में कत्यूर में ‘कुमाऊँ परिषद’ की शाखा गठित की और कुली बेगार के विरुद्ध आन्दोलन का नेतृत्व किया।

अनाथों के आर्य अनाथालय, ग्राम सुधार समिति, कताई बुनाई प्रचार केन्द्र, शिशु पालन समिति जैसे कई सामाजिक कार्यों की बुनियाद रखी। उत्तराखण्ड से जेल जाने वाले ये प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। 1957 से 1966 तक ये उ.प्र.वि.स. के सदस्य रहे। 1988 में इनका निधन हुआ।

इन्द्र सिंह नयाल (1902-1994)-

ये स्वाधीनता संग्राम सेनानी एवं राजनेता के साथ-साथ एक लेखक, समाज सेवी तथा गांधीवादी जननायक भी थे। 1932 में अल्मोड़ा में आयोजित, ‘कुमाऊँ युवक सम्मेलन’ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। भारत छोड़ो आन्दोलन में नैनीताल जिले से कई नवयुवकों पर विध्वंसात्मक कार्यों के कारण राजद्रोह का मुकदमा चला। नयाल जी ने उनकी मुफ्त पैरवी कर अपनी निस्वार्थ देश सेवा का परिचय दिया। 1973 में इन्होंने ‘स्वतंत्रता संग्राम में ‘कुमाऊँ का योगदान’ नामक पुस्तक लिखी।

भवानी सिंह रावत –

इनका जन्म 8 अक्टूबर 1910 को पौढ़ी (दुगड्डा) के नाथूपुर पंचुर गांव में हुआ था। आजाद के नेतृत्व वाले ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ’ के उत्तराखण्ड से यह एक मात्र सदस्य थे। 1930 में वे पुलिस से बचने के लिए आजाद व अन्य साथियों को अपने पैतृक गांव ले आए थे और करीब एक सप्ताह तक रहे थे। यहाँ पास के जंगल में आजाद ने पिस्टल की ट्रेनिंग लिया था।आजाद की शहादत तक उन्होंने अपना फरारी जीवन आजाद के साथ व्यतीत किया।

उसके बाद विदेश भागने का प्रयास करते समय 1931 में बम्बई में पुलिस द्वारा पकड़े गए और मुकदमा चलाया गया। सरकार द्वारा दिल्ली षड्यंत्र केस की सुनवाई के लिए गठित ट्रब्यूनल को भंग किए जाने के परिणामस्वरूप फरवरी 1933 में रिहा हो गए। दुगड्डा ( पौढ़ी) में उन्होंने शहीद मेले की शुरुआत की, जो आज भी लगता है। 6 मई 1986 को रुड़की में उनका निधन हो गया।

जगमोहन सिंह नेगी –

इनका जन्म 1905 में हुआ था। ये स्वतंत्रता सेनानी के साथ-साथ एक जन सेवी राजनेता, साहित्य प्रेमी, स्पष्ट वक्ता और लोकप्रिय जन प्रतिनिधि भी थे। 1930 के देशव्यापी सत्याग्रह आन्दोलन में भागीदारी के कारण इन्हें जेल यात्रा करनी पड़ी। उत्तराखण्ड के जनप्रतिनिधित्व इतिहास में नेगी जी का लगातार पांच बार विधानसभा में प्रवेश का एक रिकार्ड है। 30 मई 1968 को इनका देहान्त हो गया।

महावीर त्यागी –

इनका जन्म 1899 में हुआ था। प्राथमिक शिक्षा के बाद ये फौज में भर्ती हो गये। प्रथम विश्व युद्ध में ईरान भेजे गए, किन्तु राष्ट्रीय विचारों का व्यक्ति होने के कारण कोर्ट मार्शल कर फ़ौज से निकाल दिए गए। इसके बाद ये असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े। पूरे स्वतंत्रता अन्दोलन के दौरान ये 11 बार जेल गये और लगभग साढ़े सात वर्ष जेल में ही रहे।

1938 और 1946 में प्रान्तीय कौन्सिल के लिए निर्वाचित हुए। प्रथम आम चुनाव में देहरादून संसदीय क्षेत्र से लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए। स्वतंत्रता आन्दोलन के दिनों इन्हें ‘देहरादून का सुल्तान’ कहा जाता था। सन् 1923 से लगातार ये 44 वर्षों तक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य रहे। 1980 में इनका निधन हो गया।

सोबन सिंह जीना –

इनका जन्म 1909 में कुमाऊँ में हुआ था। कुमाऊँ में इन्होंने कुमाऊँ राजपूत परिषद का गठन कर इसके माध्यम से इन्होंने क्षत्रिय समाज में सुधार लाने के लिए सक्रिय भूमिका निभाई। अंग्रेजी सरकार ने इन्हें ‘रायबहादुर’ की पदवी देकर सम्मानित किया था।

वे कुमाऊँ में ‘भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। ‘भारतीय जनता पार्टी’ के गठन के पश्चात् ये इसके जिला अध्यक्ष बनाए गए। 1977 में वारामण्डल विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीते और पर्वतीय विकास मन्त्री बनाए गए। 1989 में उनका देहान्त हो गया।

श्रीधर किमोठी ‘आजाद’ –

इनका जन्म 1919 में चमोली के चन्द्रशीला भिकोन ग्राम में हुआ था। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान कई बार जेल गये। इन्होंने स्वतंत्रता के बाद अनेक सामाजिक कार्य किये। नवम्बर 2005 में इनका निधन हो गया।

परिपूर्णानन्द पैन्यूली –

इनका जन्म नवम्बर 1924 में टिहरी के छोल गांव में हुआ था। इन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई और 6 वर्ष तक बंदी जीवन व्यतीत किया। जेल से मुक्त होने के बाद ये ‘टिहरी राज्य प्रजा मण्डल’ में सम्मिलित हुए। 1946 में टिहरी में राजद्रोह के मामले में इन्हें साल 6 महीने के कठोर कारावास की सजा हुई पर जेल से फरार हो गए और रामेश्वर शर्मा के नाम से दिल्ली में क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े रहे। 1949 में टिहरी रियासत के भारत संघ में विलीनीकरण के ऐतिहासिक दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने वाले तीन प्रमुख प्रतिनिधियों में से ये एक थे।

1977 में पूर्व नरेश मानवेन्द्र शाह को पराजित कर सांसद निर्वाचित हुए। वे दर्जनभर पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। जिनमें से देशी राज्य और जन आंदोलन, नेपाल का पुनर्जागरण और संसद और संसदीय प्रक्रिया काफी चर्चित पुस्तकें हैं।

उत्तरप्रदेश हरिजन सेवक संघ के सचिव के तौर पर इन्होंने 1950 के दशक में हरिजनों को श्री बदरीनाथ, श्री केदारनाथ, गंगोत्तरी व यमनोत्तरी धामों में सवर्णों के भारी विरोध के बावजूद प्रवेश कराया। 1996 में भारतीय दलित साहित्य अकादमी ने उन्हें ‘डॉ. अम्बेडकर आवार्ड’ देकर सम्मानित किया।

डॉ. भक्त दर्शन –

इनका जन्म 12 फरवरी 1912 को पौढ़ी जिले के भौराड़ गांव में हुआ था। 14 जनवरी 1921 को बद्रीदन पाण्डेय के नेतृत्व में जब कुली बेगार प्रथा का अंत करने के लिए कुली बेगार रजिस्टर को सरयू में बहाया गया तो, इस घटना से प्रभावित होकर 14 वर्षीय भक्तदर्शन ने जीवन भर खादी पहनने और विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार का व्रत लिया।

स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान गाँधी जी के सम्पर्क में आने के बाद इन्होंने अपने नाम के आगे से जातिवाचक शब्द भी हटा दिया और जीवन पर्यन्त केवल भक्तदर्शन ही बने रहें। 1939 में इनके और भैरवदत्त धुलिया के सम्यकादत्व में लैंसडोन (पौढ़ी) से ‘कर्मभूमि’ नामक साप्ताहिक अखबार का प्रकाशन शुरू हुआ।

इन्होंने कुल चार बार गढ़वाल से लोकसभा में प्रतिनिधित्व किया। बाद में कानपुर वि.वि. के कुलपति तथा उ.प्र. हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष भी रहे। 12 वर्ष प्रयासों के बाद उन्होंने गढ़वाल की दिवंगत नामक पुस्तक लिखी। इसके अलावा उन्होंने सुमन स्मृति ग्रंथ’, कलाविद मुकुन्दीलाल बैरिस्टर स्मृति ग्रंथ व ‘स्वामी रामतीर्थ स्मृति ग्रंथ लिखी ।

श्रीदेव सुमन –

इनका जन्म मई 1916 में टिहरी के जौल गांव में हुआ। इन्होंने देहरादून के हिन्दू नेशनल कालेज में पढ़ाते हुए उच्च शिक्षा में कई डिग्रिया ली। 1930 में 14 वर्ष की अल्प आयु में इन्होंने देहरादून में नमक सत्याग्रह में भाग लिया और 15 दिन का जेल काटा था।

1938 में श्रीनगर में आयोजित राजनैतिक सम्मेलन जिसमें नेहरू, विजयलक्ष्मी पंडित आदि नेताओं ने भाग लिया था. में इन्होंने गढ़वाल के दोनों खण्डों की एकता पर जोर देते हुए कहा था कि यदि गंगा हमारी माता होकर भी हमें आपस में मिलाने की बजाय दो हिस्सों में बांटती है तो हम गंगा को काट देंगे।”

23 जनवरी 1939 को देहरादून में टिहरी राज्य प्रजा मण्डल’ की स्थापना के पश्चात् उन्होंने इस संगठन को नई दिशा दी। उनका विचार था कि ‘यदि हमें मरना ही है तो अपने सिद्धान्तों और विश्वास की सार्वजनिक घोषणा करते हुए मरना श्रेयस्कर है। फरवरी 1939 में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लुधियाना (पंजाब) में आयोजित अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद के अधिवेशन में श्रीदेव उन्होंने प्रजा मण्डल के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया था।

इसमें उन्हें हिमालयी प्रान्तीय देशी राज्यों का सच्चा प्रतिनिधि माना गया था। सन 1942 में प्रजा मण्डल की सफलता के लिए वे सेवाग्राम, वर्धा में महात्मा गाँधी से मिलने गये थे। वापस आने पर टिहरी राज्य की पुलिस ने उन्हें राज्य की सीमा के बाहर निकाल दिया। 27 दिसम्बर 1943 को उन्होंने जब पुनः टिहरी में प्रवेश करना चाहा तो 30 दिसम्बर 1943 को टिहरी कारागार में बंद कर उन्हें यातनाएं दी जाने लगी और माफी मांगने के लिए बाध्य किया गया, किन्तु सुमन ने उत्तर दिया कि ‘तुम मुझे तोड़ सकते हो, मोड़ नहीं सकते।’

21 फरवरी, 1944 को श्रीदेव सुमन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। और किसी भी सरकारी वकील को उनकी पैरवी करने की स्वीकृति नहीं दी गई। उन्होंने अपने ऊपर लगे झूठे आरोपों की खिलाफत की और कहा कि सत्य और अहिंसा के सिद्धांत पर विश्वास होने के कारण मैं किसी के प्रति घृणा और द्वेष का भाव नहीं रखता।

29 फरवरी 1944 को उन्होंने जेल कर्मचारियों के दुर्व्यवहार के विरोध में अनशन प्रारम्भ किया और तीन मांगें (प्रजा मण्डल को मान्यता दें; मुझे पत्र व्यवहार करने की स्वतंत्रता दी जाए; और मेरे विरुद्ध झूठे मुकदमों की अपील राजा स्वयं सुने) राजा के पास भेजी और कहा कि यदि 15 दिन में इन मांगों का उत्तर न मिला तो मैं आमरण अनशन प्रारम्भ कर दूंगा उत्तर न मिलने पर उन्होंने 3 मई, 1944 से अपना आमरण अनशन प्रारम्भ किया।

उनसे कहा गया कि यदि भूख हड़ताल तोड़ दें तो आपको मुक्त कर दिया जायेगा लेकिन वे अपना अनशन तोड़ने से इंकार कर दिये और टिहरी की स्वतंत्रता के लिए 25 जुलाई 1944 को 84 दिनों की भूख हड़ताल के पश्चात् शहीद हो गए। वे अक्सर कहा करते थे, ‘मैं अपने प्राण दे दूंगा किन्तु टिहरी राज्य के नागरिक अधिकारों को सामंती शासन के पंजे से कुचलने नहीं दूंगा।’

हेमवती नन्दन बहुगुणा –

धरती पुत्र / हिमपुत्र के नाम से विख्यात बहुगुणा जी का जन्म 25 अप्रैल 1919 को पौढ़ी के बुधाड़ी गावं में हुआ था। 1937 में उच्च शिक्षा के लिए ये इलाहाबाद आये और यहाँ छात्र आन्दोलनों का नेतृत्व करने लगे। 1957 में ये सर्वप्रथम कांग्रेस से विधानसभा के लिए चुनाव जीते और पंत जी के सरकार में संसदीय सचिव बने। 1972 में इलाहाबाद से लोकसभा के लिए विजयी हुए। लेकिन एक वर्ष बाद ही नवम्बर 1973 में इंदिरा जी ने उ.प्र. का मुख्यमंत्री बनाकर भेजा। 1975 में एमरजेन्सी के समय इंदिरा जी से मनमुटाव होने के कारण मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया।

1979 में उन्होंने लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी का गठन किया और अपनी पार्टी से 1982 में गढ़वाल संसदीय सीट से विजयी होकर मंत्री बने। 1984 में चरण सिंह के साथ ‘दलित मजदूर किसान पार्टी’ का गठन कर इला. से संसदीय चुनाव लड़े, लेकिन अमिताभ से हार गये। 17 मार्च 1989 को उनका निधन हो गया। उन्होंने अपने कार्यकाल में उत्तराखण्ड के लिए अलग से पर्वतीय विकास मंत्रालय की स्थापना की। ‘इण्डियन नाइज हम’ इनकी पुस्तक है।

महाराजा मानवेन्द्रशाह –

इनका जन्म 1921 में टिहरी के प्रताप नगर में हुआ था। 25 अक्टूबर 1946 को इनका राजतिलक हुआ। ध्यातव्य है कि राजतिलक के पूर्व से ही टिहरी की जनता रियासत के खिलाफ आन्दोलनरत थी और समाधान के लिए ‘टिहरी राज्य प्रजा मण्डल का गठन किया गया था। जनता और टिहरी पुलिस के बीच निरन्तर संघर्ष जारी था।

अतः भारत सरकार के हस्तक्षेप से अंतरिम सरकार गठित की गई, जिसमें आनंदशरण रतूड़ी, खुशाल सिंह, डॉ. कुशलानन्द गैरोला आदि शामिल थे। जनता के लम्बे संघर्ष के परिणामस्वरूप । अगस्त 1949 को टिहरी रियासत का भारत में विलय हो गया। विलय के तुरन्त बाद (1952 में ) उन्होंने पृथक राज्य का मांग उठाया था।

शाह टिहरी से 2004 में 8वीं बार लोकसभा के लिए चुनाव जीते थे। सर्वप्रथम 1957 से लगातार तीन बार (1957, 62, 67) फिर 1991 से लगातार 5 बार चुनाव जीते। 5 जनवरी 2007. को सांसद रहते ही उनका निधन हो गया

नारायण दत्त तिवारी –

विकास पुरुष के नाम से विख्यात श्री तिवारी का जन्म अक्टूबर 1924 में नैनीताल के बल्यूटी गांव ( हल्द्वानी) में हुआ था। इन्होंने इलाहाबाद वि.वि. से राजनीति शास्त्र में एम.ए. व एल.एल.बी. किया और छात्रसंघ के अध्यक्ष भी रहे।

उच्चकोटि के आंचलिक साहित्यकार मोहनलाल बाबुलकर का जन्म 1931 में देव प्रयाग के मुछियाली ग्राम में हुआ था। उनके द्वारा रचित सभी रचनाओं की विषय वस्तु उत्तरांचल ही है। उनकी प्रमुख रचनाएं इस प्रकार हैं- हिमालय के वरदान, मिट्टी में सोना, दहेज, पशुधन, सूरजमुखी की खेती, अंधेरे से उजाला आदि।

डॉ. शशि धर शर्मा –

संस्कृत साहित्य के अप्रतिम विद्वान, बेजोड़ लेखक, उच्च श्रेणी के शिक्षाविद, महाकवि, ‘महामहोपाध्याय और ‘शास्त्रार्थ महारथ’ जैसी गौरवशाली उपाधियों से विभूषित श्री शर्मा जी का जन्म 1932 में हुआ था। ये देश के पहले प्राध्यापक हैं जिन्हें संस्कृत साहित्य की अनन्य सेवाओं के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार (सर्टिफिकेट ऑफ आनर्स 1985) से सम्मानित किया गया। बिना पीएच. डी. की डिग्री प्राप्त किए डी. लिट. की उपाधि प्राप्त करने वाले विश्वभर में अपवादों में से एक है।

1991 में ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य ने इन्हें ‘विश्व रत्न’ की उपाधि देकर अलंकृत किया। कांची कामकोटि के शंकराचार्य ने आजीवन 1000 रु. प्रतिमाह मानदेय देने सम्बन्धी सम्मान प्रदान किया तथा पुरी के शंकराचार्य ने ‘शास्त्रार्थ महारथ’ की मानद उपाधि से अलंकृत किया।

गोपेश्वर कोठियाल –

आचार्य गोपेश्वर कोठियाल का जन्म टिहरी के उदखण्डा गांव में फरवरी 1909 में हुआ था। 1935 में जब उच्च शिक्षा प्राप्त कर वे देहरादून पहुंचे तो उन दिनों टिहरी – गढ़वाल राज्य अनेक प्रकार के असंतोषों से उभर रहे जनान्दोलनों का केन्द्र बिन्दु बना हुआ था।

अतः जिस प्रकार 1939 में उत्तराखण्ड में कांग्रेस की आवाज बुलंद करने तथा स्वतंत्रता आंदोलन को जन-जन का आंदोलन बनाने के लिए भक्तदर्शन व भैरवदत्त धूलिया आदि ने मिलकर ‘कर्मभूमि’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया था, ठीक उसी प्रकार टिहरी रियासत के जनांदोलनों तथा ‘टिहरी राज्य प्रजामण्डल’ की गतिविधियों को जन-जन तक पहुँचाने के लिए 15 अगस्त,1947 को भगवती प्रसाद पांथरी, गोपेश्वर कोठियाल तथा तेजराम भट्ट ने मिलकर देहरादून से ‘युगवाणी’ साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया। बाद में प्रकाशन तथा सम्पादन का सारा भार गोपेश्वर कोठियाल के कंधों पर ही आ गया और उन्होंने इस भार को बखूबी से निभाया।

डॉ. चक्रधर बिजल्वान –

संस्कृत के मूर्धन्य विद्वान, उच्चकोटि के ग्रन्थकार, शिक्षाविद, समीक्षक, भाषाविद् व जनसेवी श्री बिजल्वान का जन्म 1932 में हुआ था। इन्होंने कई संस्कृत ग्रन्थों का प्रणयन और सम्पादन किया है। इनके द्वारा विरचित ग्रन्थों में प्रमुख हैं भारतीय ज्ञान मीमांसा, हिन्दू शकुनशास्त्रम, भारतीय न्यायशास्त्र, न्याय और अद्वैतवेदान्त के परिप्रेक्ष्य में ज्ञान और अज्ञान का तुलनात्मक समीक्षण, वैशेषिक दर्शन और ब्राह्मण ग्रन्थाधारितः शुक्तिसमुच्चयः, भारत में योग तथा यौगिक प्रक्रियाओं का विकास, सारस्वत, सौरभम् तथा मामनीविलासः समाविष्ट आदि। इन्होंने संस्कृत वाङमय की विभिन्न विधाओं पर लगभग सौ शोध-पत्र लिखे हैं।

शैलेश मटियानी –

कथाशिल्पी, उपन्यासकार, प्रखर चिन्तक और विचारक श्री मटियानी का जन्म 14 अक्टूबर 1930 को बाड़ेछीन अल्मोड़ा में हुआ था। उन्होंने ‘विकल्प पत्रिका के साथ साथ ‘विकल्प प्रकाशन’ आरम्भ कर अपनी रचनाओं का स्वयं प्रकाशन किया। इसके अलावा सांस्कृतिक पत्रिका ‘जनपक्ष का भी सम्पादन एवं प्रकाशन किया। इन्होंने 25 उपन्यासों, 19 कहानी संग्रहों, 10 वैचारिक लेख संग्रहों तथा एक दर्जन से अधिक बालोपयोगी पुस्तकों का सृजन किया। 2001 में इनका देहान्त हो गया ।

हिमांशु जोशी –

ख्याति प्राप्त साहित्यकार एवं पत्रकार श्री जोशी की उपन्यास, कहानी, कविता, जीवनी, संस्मरण, यात्रा वृत्तान्त, नाटक और बाल साहित्य पर अब तक लगभग 37 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्होंने लगभग 29 वर्ष तक ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ पत्र का सम्पादन किया। प्रत्रकारिता के लिए ये गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार’ से सम्मानित हैं।

शिवानंद नौटियाल –

हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक शिवानंद नौटियाल का जन्म 18 जून, 1936 को पौड़ी गढ़वाल जिले के कोठला ग्राम में हुआ था। ये एक साहित्यकार, समाज सुधारक एवं कुशल राजनीतिज्ञ रूप में विख्यात हैं। ये दिल्ली में टीचर रहे तथा दिल्ली से प्रकाशित शैलोदय (सा.) पत्र सम्पादन का भी कार्य किया। 1969 में विधान सभा के लिए चुने गए थे।

उन्होंने कुल 26 पुस्तकों की रचना की इन पुस्तकों में से सन् 1974 में प्रकाशित तथा उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत ‘गढ़वाल (गंगा-यमुना के नैहर) के लोकनृत्य’, सन् 1981 में प्रकाशित गढ़वाल के लोक नृत्य’ तथा सन् 1987 में प्रकाशित ‘तपोभूमि गढ़वाल उनकी कालजयी रचनाएं हैं।

डॉ. उमाशंकर ‘सतीश –

गढ़वाली के सशक्त लेखक, कवि, गीतकार, गायक श्री सतीश का जन्म 1937 में हुआ था। अध्ययन के दौरान ही ये स्टेट विश्वविद्यालय, अल्बानी (न्यूर्याक) द्वारा संचालित शिक्षा स्रोत केन्द्र में अनुसन्धान अधिकारी नियुक्त हो गए। तदनन्तर केन्द्रीय हिन्दी संस्थान में प्राध्यापक, सूरीनाम (दक्षिण अमेरिका) में हिन्दी के प्राध्यापक तथा नीदरलैंड, हिन्दी संस्थान में निदेशक रहे। गढ़वाली फोनोटिक्स पर इन्होंने महत्वपूर्ण शोध किया है। अंग्रेजी में इन्होंने ‘ए लिंग्विस्टिक स्टडी ऑफ जौनसारी’ पुस्तक लिखा है।

राजेन्द्र धस्माणा –

इनका जन्म 1936 में पौड़ी के बग्याली गांव में हुआ था। ये अत्यन्त मुखर, निर्भीक तथा महियादिना विरोधी कवि एवं सम्पादक हैं। ये ‘द कलेक्टिड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी के प्रधान सम्पादक तथा दूरदर्शन के प्रातःकालीन समाचार बुलेटिन के सम्पादक रह चुके हैं। इनकी मुख्य कविता संग्रह परवलय (1973) है।

इन्होंने गढ़वाली में ‘जंक जोड़’, ‘अर्द्धग्रामेश्वर‘, ‘जय भारत, जय उत्तराखण्ड’ तथा ‘भड़ माधोसिंह आदि नाटकों का लेखन किया तथा भवानीदत्त थपल्याल के प्रहलाद नाटक’ का कालांतरण और कथ्यांतरण, कन्हैयालाल डंडरियाल के ‘कंस वध’ का ‘कंसानुक्रम’ नाम से भावांतरण और महेश एल कुंचवार के कोंकणी नाटक ‘वाडा चिरेबंदी’ का रूपांतरण पैसाम
ध्यल्ला गुमान सिंह रौत्यल्ला’ के नाम से किया।

डॉ. श्याम सिंह ‘शशि’ –

डॉ. श्याम सिंह ‘शशि’ प्रख्यात साहित्यकार, नृ – वैज्ञानिक (मानवशास्त्री), कवि, प्रबुद्ध पत्रकार, विश्वकोशकार, हिन्दी तथा अंग्रेजी में समान रूप से लिखने के साथ-साथ लोकप्रिय शिक्षाविद् एवं कुशल प्रशासक रहे हैं। उन्हें 1990 में पदमश्री सम्मान से अलंकृत किया गया था। उन्होंने 52 देशों की यात्रा कर एक नृ-वैज्ञानिक के रूप में भारतीय मूल के रोमा जिप्सियों का अध्ययन किया तथा मैक्सिको, जापान, थाईलैंड में सूर्य मंदिरों की खोजकर भारतीय संस्कृति के इतिहास में श्रीवृद्धि की।

अंग्रेजी में सम्पादित ‘एनसाइक्लोपीडिया ऑफ ह्यूमेनिटीज एंड सोशल साइंसेज’ ( 50 खंडों में), ‘एनसाइक्लोपीडिया ऑफ इंडियन ट्राइब्स’ ( 12 खण्डों में ) इनसाइक्लोपीडिया इंडिका’ तथा ‘सामाजिक विज्ञान हिन्दी विश्वकोष’ (हिन्दी में प्रथम ऐतिहासिक कार्य) आदि उनके अनवरत अध्यवासाय एवं सतत साधना के प्रतीक हैं। उनके ‘नोमेडस आफ द हिमालयाज’ ‘रोमा-द-जिप्सी वर्ल्ड’, ‘गद्दीज आफ हिमालयाज’ आदि नृ-वैज्ञानिक (मानवशास्त्रीय) ग्रंथ है।

प्रो. गंगा प्रसाद ‘विमल’ –

हिन्दी के श्रेष्ठ कवि, कथाकार, समीक्षक, सम्पादक कई भाषाओं के विद्वान और अन्तर्राष्ट्रीय विद्वत समाज के मान्य सदस्य श्री विमल जी कई राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सम्मानों से अलंकृत होने के साथ ही हिमालय से सम्बन्धित राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के मानद सदस्य, हिमालय सेवा संघ की कार्यकारिणी के सदस्य और आथर्स गिल्ड ऑफ इण्डिया’ के उपाध्यक्ष भी हैं।

इनकी प्रमुख रचनाएं इस प्रकार हैं अपने से अलग, कहीं और कुछ मरीचिका, मृगान्तक, कोई शुरुआत, अतीत में कुछ, इधर-उधर, बाहर न भीतर, चर्चित कहानियां, मेरी कहानियां, दीक्षा ली। दीक्षा के बाद उनका नाम ‘जयानंद आर्य ‘पथिक’ हो भ गया। गढ़वाल में उन्होंने छुआछूत और डोलापालकी जैसी कुप्रथा मे के विरुद्ध आवाज उठाई और लम्बे संघर्ष के बाद इस कुप्रथा को समाप्त करने में सफल हुए। इस आंदोलन में उन्हें गांधी जी का भी •समर्थन प्राप्त था 1952 में उनका देहान्त हो गया।

मुंशी हरिप्रसाद टम्टा –

इनका जन्म 26 अगस्त 1888 को अल्मोड़ा में एक दलित परिवार में हुआ था। दलित वर्ग को शिल्पकार नाम दिलाने में इन्होंने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1905 में इन्होंने .. ‘टम्टा सुधार सभा’ का गठन किया, जो बाद में ‘शिल्पकार सभा’ के नाम से जाना गया। 1934 में सामाजिक चेतना के उद्देश्य से अल्मोड़ा से ‘समता’ साप्ताहिक का प्रकाशन किया। शिल्पकारों के शिक्षा, स्वास्थ्य एवं रोजगार के लिए इन्होंने सफल प्रयास किया और शिल्पकारों का यज्ञोपवीत कराकर उनमें आत्मविश्वास बढ़ाने का कार्यक्रम भी चलाया। 1960 में उनका निधन हो गया।

घनानन्द खण्डूरी –

दानवीर, समाज सेवी और चोटी के वन व्यवसायी श्री खण्डूरी का जन्म 1882 में गढ़वाल में हुआ था। इन्होंने अपने धन से पाठशालाएं खोलकर गढ़वालियों को विद्याध्ययन करने, व्यवसाय आरम्भ करने और सम्मानपूर्वक आजीविका कमाने में अनोखा योगदान दिया। 1920 में इन्हें ‘रायबहादुर’ सम्मान से विभूषित किया गया। इनकी स्मृति में मसूरी में स्थापित ‘घनानन्द इण्टर कालेज’ आज भी गरिमा के साथ चल रहा है।

माधव आशीष –

आध्यात्म और पर्यावरण को समर्पित मिर्तोला आश्रम, जागेश्वर (अल्मोड़ा) के व्यवस्थापक इस अंग्रेज सन्त का जन्म 1920 में इंग्लैण्ड में हुआ था। द्वितीय विश्वयुद्ध के दिनों में ये भारत आए तो यहीं के हो गए। कुमाऊँ के विद्यालयों में पर्यावरण शिक्षा में इनका योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 1992 में इन्हें ‘पदमश्री’ से सम्मानित किया और 1997 में देहान्त हो गया।

नारायण सिंह नेगी –

विगत 30 वर्षो से वृक्षारोपण करते आ रहे श्री नेगी ने पर्यावरण दिशा में एक कीर्तिमान स्थापित किया है। ‘पर्यावरण सम्मान’ से सम्मानित श्री नेगी ने 30 वर्षों के प्रयास से थराली गांव की 27 हेक्टर भूमि में 75 प्रकार के 70 हजार से अधिक वृक्ष लगाया। उनको ‘गौरादेवी स्मृति पुरस्कार’ प्रदान किया गया है।

विशेश्वर दत्त सकलानी –

अनन्य प्रकृति प्रेमी, वृक्ष मित्र, पर्यावरण संरक्षक पुजार गांव, टिहरी के श्री सकलानी स्वाधीनता संग्राम सेनानी, टिहरी जनक्रान्ति के अमर शहीद नागेन्द्र सकलानी के अनुज थे। पर्यावरण के क्षेत्र में इनके उल्लेखनीय योगदान के लिए 1986 में ‘इन्दिरा प्रियदर्शिनी वृक्ष मित्र पुरस्कार’ से सम्मानित किया था इन्हें उत्तराखण्ड का वृक्ष मानव कहा जाता था। 18 जन. 2019 को 96 वर्ष की अवस्था में इनका निधन हो गया।

सुन्दरलाल बहुगुणा –

इनका जन्म 1927 में टिहरी के मरोड़ा गांव में हुआ था। स्वतंत्रता से पूर्व ये टिहरी रियासत की स्वाधीनता के लिए संघर्षरत रहे और स्वतंत्रता के बाद विनोबा के आन्दोलन से जुड़े रहे। उसके बाद अपने जीवन को पर्यावरण के लिए समर्पित कर दिया। हिमालयी पर्यावरण के लिए संभावित खतरे के रूप में टिहरी बांध परियोजना के विरुद्ध अनेकों बार अपना विरोध प्रदर्शन, सत्याग्रह, भाषणों, लेखों तथा पदयात्राओं के माध्यम से करके पर्यावरण के क्षेत्र में निरन्तर सक्रिय रहे।

अनेको देशों में चिपको आंदोलन एवं वृक्षों के महत्व की जानकारी देने वाले श्री बहुगुणा लंदन में पर्यावरण कार्यक्रम तथा मैक्सिको में विश्व कृषि एवं खाद्य संगठन को संबोधित कर चुके हैं। 1981 में भारत सरकार ने इन्हें पदमश्री पुरस्कार देने की घोषणा की, जिसे इन्होंने अस्वीकार कर दिया।

सन 1984 में सिंघवी ट्रस्ट द्वारा ‘राष्ट्रीय एकता पुरस्कार’ और सन् 1985 में बंबई की वृक्ष मित्र संस्था ने ‘वृक्ष मानव पुरस्कार’ प्रदान किया। इन्हें जमनालाल बजाज पु. तथा रुड़की वि.वि. द्वारा डॉक्टर ऑफ सोशियल साइंसेज का मानद उपाधि भी मिला है। 21 मई, 2021 को इनका निधन हो गया है।

घनश्याम सैलानी’ सच्चे अर्थों में एक निष्काम समाजसेवी, वृक्ष प्रेमी, गीतकार, गायक, पर्यावरण प्रेमी श्री सैलानी जी का जन्म 1934 में हुआ था, साहित्य के माध्यम से लोगों में सामाजिक और नैतिक-सांस्कृतिक दायित्वों के प्रति कर्तव्यबोध जगाने के लिए इन्हें ‘पर्यावरण सेवक’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1988 में उन्होंने बैंकाक, थाईलैण्ड में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण गीत महोत्सव में भारत का प्रतिनिधित्व किया। 1999 में इनका निधन हो गया।

चण्डीप्रसाद भट्ट –

इनका जन्म 1934 में हुआ था। 1975 में ये आचार्य विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण से प्रेरणा पाकर सर्वोदय आन्दोलन में सम्मलित हुए और उत्तराखण्ड में सर्वोदयी मण्डल के संयोजक रहे। 1964 में इन्होंने दशौली ग्राम स्वराज मण्डल की स्थापना की। सत्तर के दशक में इन्होंने चिपको आंदोलन को गति देने के लिए ‘दाल्यो का दगड्या’ नामक स्वयंसेवी संस्था का गठन किया। पर्यावरण के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए 1982 में इन्हें एशिया के सबसे बड़े पुरस्कार रेमन मैग्सेसे से सम्मानित किया गया। 1986 में पदमश्री और 2005 में पदमभूषण से सम्मानित किया गया।

स्वामी शिवानन्द –

स्वामी जी ने अध्यात्म, ध्यान व ईश्वरीय अनुभूति का समस्त विश्व में संदेश दिया। उन्होंने ऋषिकेश में द डिवाइन लाइफ सोसाइटी’, ‘शिवानन्द आयुर्वेदिक फार्मेसी तथा ‘योग वेदान्त फारेस्ट एकेडमी की स्थापना की। स्वामी राम एक बहु आयामी व्यक्ति थे। योग, वेदांत, विज्ञान, चिकित्सा, मनोविज्ञान, अध्यात्म विद्या आदि सभी क्षेत्रों में उनकी उपलब्धियां उल्लेखनीय हैं।

1996 में उन्होंने हिमालय की तलहटी में गंगातट पर साधना मंदिर आश्रम स्थापित किया। देहरादून के समीप जौलीग्रांट में 1989 में ‘हिमालयन इंस्टीटयूट हॉस्पीटल ट्रस्ट’ की स्थापना की। कानपुर स्थित ‘हिमालयन इंस्टीटयूट ऑफ योगा एंड फिलॉस्पी’ तथा अमेरिका में इसी नाम की संस्था, जिसकी शाखाएं इंग्लैण्ड, जर्मनी, मलेशिया, ट्रिनिडाड, सिंगापुर और कनाडा में भी हैं, स्वामी जी की ही देन है।

स्वामी जी एक अच्छे चित्रकार और कुशल संगीतज्ञ भी थे। उनकी संगीत पुस्तक ‘इंडियन म्यूजिक’ पश्चात्य जगत को भारतीय संगीत प्रणाली से सरलता के साथ अवगत कराने के प्रयास का एक रूप है। स्वामी जी ने मेनिंजर फाउंडेशन में कार्यरत रहते हुए ध्यान की अवस्था में अपने आपको वैज्ञानिक तरीकों से अपनी चेतना अवस्था का परीक्षण करने के लिए अपने आपको उपलब्ध कराया था। यह ऐसा करने वाले प्रथम योगी थे।

सतपाल महराज –

हंस महाराज (श्री हंस रामसिंह रावत) के चार पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र सत्यपाल सिंह रावत (सतपाल महराज) का जन्म 1951 में हुआ था। 1966 से ये अपने पिता के उत्तराधिकारी के रूप में आध्यात्मिक एवं सामाजिक उत्थान हेतु प्रयत्नशील हैं ये अग्रणी समाज सेवी संस्था ‘मानव उत्थान सेवा समिति’ के संस्थापक ये सर्वधर्म समभाव, एक राष्ट्र, एक ध्वज, एक आत्मा के समर्थक और प्रचारक देश में इनके अनुयायियों की संख्या 50 लाख से अधिक बताई जाती है।

मानव उत्थान सेवा समिति के माध्यम से गढ़वाल क्षेत्र में इन्होंने कई स्कूलों, अस्पतालों, आश्रमों, तकनीकी केन्द्रों की स्थापना की है। 1995 में गढ़वाल संसदीय सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े और केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में राज्य के पहले रेल राज्य मन्त्री बने थे।

कल्याण सिंह रावत ‘मैती’ –

इनका जन्म 1953 में चमोली के बैनोली (नाटी) में हुआ था। एक शिक्षक के पद पर रहते हुए 1974 में इन्होंने दुर्लभ वन्य प्राणियों की रक्षा एवं संवर्द्धन हेतु ‘हिमालय वन्य जीव संस्थान’ की स्थापना की और छात्रों के सहयोग से ये अब तक हिमालय क्षेत्र में दो दर्जन से अधिक कैम्प तथा भावनात्मक अभियान चला चुके हैं। यथा – ‘देवभूमि क्षमा यात्रा’, ‘त्रिमूर्ति पद यात्रा’ गढ़वाल तथा कुमाऊँ विश्वविद्यालय के बीच ‘रजत जयन्ती रथ यात्रा’, ‘गाँवों की ओर चलो’ पद यात्रा ‘लोकमाटी वृक्ष अभिषेक समारोह (टिहरी)’, ‘वृक्ष अभिषेक समारोह राजगढ़ी’ आदि। इन कार्यक्रमों को व्यापक जनसमर्थन मिल चुका है।

कारगिल में शहीद सैनिकों की स्मृति में जनसहयोग से ‘शौर्य वन’ तथा ‘मैती वन’ लगाया। राजजात यात्रा 2000 के समय उत्तरांचल के 13 जनपदों की जागरूक महिलाओं को एक स्थान पर बुलाकर एक ‘नन्दा देवी स्मृति वन’ की स्थापना नौटी के समीप की ।

1995 में इन्होंने पर्यावरण के संरक्षण के लिए ‘मैती’ नामक भावनात्मक आन्दोलन की शुरुआत की जो कि राज्य के अधिकांश गांवों में संस्कार का रूप ले लिया है। इसमें प्रत्येक शादी में दुल्हा दुल्हन मिलकर पेड़ लगाते हैं। यह आन्दोलन भारत के बाहर भी लोकप्रिय होता जा रहा है। इस कार्यक्रम के प्रोत्साहन हेतु ‘मैती पुरस्कार’ की भी शुरुआत की है।

स्वामी मन्मथन –

उदय मंगलम चन्द्रशेखरन मन्मथन मेनन का जन्म केरल में हुआ था। गृह त्याग के बाद कई जगहों का भ्रमण करते हुए 1964 में वे उत्तराखण्ड आये और यहाँ कई जगहों पर निवास करते हुए अनेक सामाजिक कार्य किये। उनके प्रयासों से चन्द्रबदनी देवी मंदिर पर पशु बलि प्रथा समाप्त हुआ।

गढ़वाल वि.वि. की स्थापना के लिए इन्होंने सराहनीय प्रयास किया। 1977 में टिहरी के अन्जनीसैंण में इन्होंने श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम’ स्थापित किया। जो कि महिला कल्याण के लिए समर्पित एक अग्रणी संस्था है। 1990 में अन्जनीसैंण में उनकी हत्या कर दी गई।

अवधेश कौशल –

पर्यावरण प्रेमी अवधेश कौशल को खान माफिया से लोहा लेने वाले के रूप में जाना जाता है। उन्होंने 1983 में देहरादून-मसूरी क्षेत्र में खनन को प्रतिबंधित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की थी। उस समय पर्यावरण के मुद्दे पर दायर होने वाली यह प्रथम याचिका थी और फैसला भी उनके पक्ष में हुआ। बाद में उन्होंने देहरादून से 11 किमी. दूर स्थित सहस्त्रधारा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर पौधारोपण किया। उन्होंने शिवालिक की पहाड़ियों के वन गूजरों को एक जुट किया। आज भी वे अपनी संस्था रूरल लिटिगेशन एंड एंटाइटलमेंट केंद्र के माध्यम से राज्य के सभी जिलों में पर्यावरण की अलख जगा रहे हैं।

सुरेश भाई –

1964 में टिहरी के बूढ़ाकेदार में जन्मे सुरेश भाई ने 1984 में सरकारी सेवा त्यागकर समाज सेवा के प्रति समर्पित होकर लोगों में समर्पण भाव की अलख जगाने का अभियान शुरू किया। राज्य के गावों में इन्होंने महिला और युवक मंगल दलों का गठन करवाया। 1994 में जब उत्तराखण्ड आन्दोलन अपने चरम पर था और कुछ लोग जंगलों के अवैध कटान में सक्रिय थे। ऐसी स्थिति में वनों को बचाने के लिए ‘रक्षा सूत्र आन्दोलन’ का सूत्रपात किया जो आज एक वृहद आंदोलन का रूप ले चुका है।

डॉ. पीताम्बर अवस्थी –

अवस्थी गांव, अस्कोट, पिथौरागढ़ के डां. पीताम्बर अवस्थी राज्य में पिछले दो दशक से नशा मुक्ति, पर्यावरण संरक्षण, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओं, पशु बलि निषेध तथा संस्कृति व संस्कृत के संरक्षण-संवर्धन में लगे हुए हैं। उत्तराखण्ड में इन्हें नशामुक्त अवस्थी के नाम से जाना जाता है।

नशामुक्ति पर इनके संदेश दूरदर्शन से भी प्रसारित होते रहते हैं। नशे पर इनकी शोध परक पुस्तक ‘जिन्दगी जरूरी है’ काफी चर्चित रही है। इनकी अन्य रचनाएं हैं- हिमालय, उत्तराखण्ड के परम्परागत जलस्त्रोत, मंजुल हिन्दी काव्य संग्रह, कुमाऊंनी काव्य संग्रह – परछाई, बेटियां, मासिक धर्म अपवित्र क्यों, स्तवन नित्य कर्म पद्धति, अभियान एक दस्तावेज, कुमाऊंनी खण्डकाव्य व पिताश्री के प्रियभजन आदि।

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