पौड़ी गढ़वाल 1815 से 1840 तक ब्रिटिश गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर रही। 1840 में राजधानी श्रीनगर से पौढ़ी में स्थानान्तरित की गई और पौढ़ी को ब्रिटिश गढ़वाल का एक जिला बनाया गया। स्वतंत्रता के बाद 1969 में इसे गढ़वाल मण्डल का मुख्यालय बनाया गया। यह नगर समुद्र तल से 1650 मी. की ऊँचाई पर कण्डोलिया पहाड़ी की ढाल पर स्थित है। यहाँ का सर्वोच्च शिखर झंडीधार है। 1992 में इसे हिल स्टेशन घोषित किया गया। 1960 में इससे काटकर चमोली जिले की तथा 1997 में रुद्रप्रयाग जिले की स्थापना की गई।

पौढ़ी से हिमाच्छादित हिमालय का अर्द्ध-वृत्ताकार रूप में जो व्यापक दृश्य दिखाई देता है, वह भारत के किसी भी भाग से दिखाई नहीं देता। इसके समीप के दर्शनीय स्थलों में क्यूंकालेश्वर, नागदेव, खिर्स, ज्वालपाधाम, कंदोलिया मंदिर, भीमी की मंगरी (जलधारा), भादों की मंगरी व इन्द्रकील पर्वत आदि उल्लेखनीय हैं। नगर के ऊपरी भाग में 5 किमी. की लम्बाई में सघन वन क्षेत्र है। यहाँ पर विश्वविद्यालय परिसर के अतिरिक्त घुड़दौड़ी में इंजीनियरिंग कॉलेज भी है।
रांसी में एक स्टेडियम का निर्माण किया गया है जो एशिया में दूसरा सबसे ऊँचाई पर स्थित स्टेडियम है। 24 दिसम्बर, 2001 को पौड़ी को देवप्रयाग पुल से जोड़ दिया गया है। इस जनपद के कुछ भागों (भाँवर) को छोड़कर पूर्णतया पर्वतीय क्षेत्र है।
पौड़ी गढ़वाल में स्थित प्रमुख दर्शनीय स्थल इस प्रकार है –
श्रीनगर –
अलकनन्दा के बाएं तट पर तथा पौढ़ी से 30 किमी.की दूरी पर स्थित वर्तमान श्रीनगर की स्थापना 1358 में गढ़वाल नरेशों द्वारा की गई थी। 1621 मे महिपतिशाह के समय तक यह अपने गौरवशली स्थिति में आ गया था। 1803 के भूकंप में इस नगर की काफी क्षति हुई। 1804 से 1815 तक इस पर गोरखाओं का तथा 1815 से अंग्रेजों का अधिकार रहा।
1894 में गौना झील के टूटने से अलकनंदा में आई बाढ़ ने इस नगर को तहस-नहस कर दिया। फिर नगर को थोड़ा ऊचाई पर बसाया गया, जो वर्तमान में है। 1940 में अंग्रेजों ने यहाँ से राजधानी पौढ़ी स्थानांतरित कर दी। स्वतंत्रता के बाद यह पौढ़ी जिले का अंग बना। 1973 में यहां गढ़वाल वि. वि. की स्थापना की गई। इसके नजदीक श्रीकोट में एक मेडिकल कालेज भी बन रहा है।
श्रीनगर कोटद्वार, ऋषिकेश, टिहरी तथा बद्रीनाथ से आने वाली सड़कों के जंक्शन पर स्थित है। विष्णु मंदिर, गरूण मंदिर, 7 कटकेश्वरघस्या महादेव, कमलेश्वर, कल्याणेश्वर, किंकिलेश्वर, काली कमली मंदिर, राजराजेश्वरी, गोरखनाथ की गुफाएं, अष्टावक्र मंदिर, मज्जुघोष मंदिर, महेंद्राचल पर्वत पर इन्द्रकील मणिकनाथ मंदिर आदि यहाँ के दर्शनीय स्थल हैं।
श्रीनगर के आस-पास के प्रमुख स्थल इस प्रकार हैं –
धारी देवी मंदिर
श्रीनगर से लगभग 14 किमी. दूर कलियासौड़ में अलकनंदा के बायें तट पर यह मंदिर स्थित है। यह मंदिर काली देवी को समर्पित हैं। लोगों का मानना है कि जैसे-जैसे दिन गुजरता है इस मूर्ति में बदलाव होता हैं। श्रीनगर जनविद्युत परियोजना के निर्माण से अलकनंदा में बनी झील के डूब क्षेत्र में सिद्धपीठ धारी देवी मंदिर की प्राचीन शिला और मंदिर भी आ गया। सिद्धपीठ धारी देवी का नया मंदिर प्राचीन स्थल से ठीक 21 मीटर की ऊंचाई पर निर्माणाधीन है।
सोम का भांडा –
देवलगढ़ स्थित ‘सोम का भांडा’ स्मारक प्राचीन समय में राजाओं की राजधानी थी। स्मारक की दीवारों पर कूटलिपि अंकित हैं, जो इतिहासविदों के लिए चुनौती बनी हुई है। देवलगढ़ में ‘सोम का भांडा’ स्मारक के अलावा प्राचीन नाथ सिद्धों की गुफाएं भी हैं, जिन पर शिलालेख विद्यमान हैं।
केशोराय मठ-
श्रीनगर के पास स्थित इस मठ का नाम द. भारत के केशवराय के नाम पर पड़ा है। आज से लगभग 800 वर्ष पूर्व जब वे बद्रीनाथ की यात्रा पर थे तो अत्यधिक थक जाने के कारण इसी स्थान पर सो गये थे। स्वप्न में बदरी भगवान ने उन्हें आगे न बढ़ने की आज्ञा दी और उसी स्थान पर जमीन में अपनी मूर्ति होने की सूचना दी। उसी मूर्ति को केशवराय ने यहाँ स्थापित किया था।
शंकरमठ –
यह मन्दिर श्रीनगर शहर से 03 किमी की दूरी पर स्थापित है। ऐसा विश्वास है कि इसका निर्माण आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा किया गया था। मन्दिर के गर्भ गृह में भगवान विष्णु एवं लक्ष्मी की प्रतिमाए स्थित है।
कमलेश्वर मंदिर-
मान्यता के अनुसार यहां भगवान राम ने भगवान शिव की एक हजार कमल के फूलों से उपासना की थी। भगवान राम को ऐसा लगा की एक फूल कम हैं तब उन्होंने प्रायश्चित में अपनी एक आंख भेट कर दी। यह सन्तति दाता या पुत्रदाता के रूप में प्रसिद्ध है। यहाँ संतान चाहने वाले लोक बैकुंठ चतुर्दशी के रात्रि भर हाथ पर घी का दीपक लेकर खड़े रहते हैं।
कोटद्वार-
यह गढ़वाल का प्रवेश द्वार है जो कि समतल भूमि पर बसा है। यहाँ पौड़ी गढ़वाल जिले का एकमात्र रेलवे स्टेशन है। यह नगर खोह नदी के दाहिनी ओर बसा है। इसके नजदीक ही मोरध्वज का किला है। यहां पुराने गढ़ों के खण्डहर और भग्नावशेष भी हैं। इसके आस-पास के प्रमुख दर्शनीय स्थल इस प्रकार हैं।
कण्वाश्रम –
कोटद्वार से लगभग 10 किमी. दूर शिवालिक श्रेणी के हेमकूट और मणिकूट पर्वतों के मध्य तथा मालिनी नदी क तट पर ऐतिहासिक तथा पुरातात्विक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण यह स्थल स्थित है। वर्तमान में इसे चौकीघाट कहते हैं। प्राचीनकाल में यह वैदिक शिक्षा एवं सांस्कृतिक प्रचार-प्रसारका केंद्र था। महाकवि कालीदास ने भी यहां शिक्षा प्राप्त की थी और यहीं से प्रेरणा लेकर ‘अभिज्ञान’ शाकुंतलम’ की रचना की थी।
महर्षि गौतम, विश्वामित्र व कण्व की तपस्थली कण्वाश्रम विश्वामित्र व मेनका की पुत्री शकुंतला एवं राजा दुष्यंत के प्रेम
तथा भरत के जन्म का भी साक्षी है। इन्हीं भरत के नाम पर देश का नाम ‘भारत’ पड़ा। महाकवि कालिदास इसे किसलय प्रदेश कहते हैं। डॉ. संपूर्णानंद ने 1955 में कण्वाश्रम के महत्व को पुनः स्थापित करने का प्रयत्न किया।
कण्वाश्रम में मालिनीनदी के बाईं ओर पहाड़ी पर स्थित एक छोटे मंदिर में महर्षि कण्व, भरत, कश्यप आदि की मूर्तियां हैं। प्राचीन काल में यह आश्रम कण्व ऋषि के नेतृत्व में विद्या अध्ययन का बहुत बड़ा केन्द्र था। भारत स्मारक के साथ-साथ यहाँ पुरातात्विक महत्व की अनेक मूर्तियां सुरक्षित हैं।
कालागढ़ –
कोटद्वार से 48 किमी दूर स्थित कालागढ प्रकृति प्रेमियों के लिए एक आदर्श स्थल है। यहाँ रामगंगा नदी पर निर्मित बाँध दर्शनीय है।
सिद्धबली मंदिर
हनुमान जी का यह प्रसिद्ध मंदिरकोटद्वार से मात्र 2 किमी. की दूरी पर स्थित है।
दुगड्डा –
कोटद्वार से 16 किमी. उत्तर में लंगूर व सिलगाड के संगम पर स्थित दुगड्डा को 19वीं शताब्दी में पं. धनिराम मिश्र ने अपने खेत में बसाया था, जो कि ब्रिटिश काल में गढ़वाल का एक प्रमुख व्यापारिक एवं राजनीतिक केन्द्र था। यह स्थान साहित्यकार
शिवप्रसाद डबराल (चारण) का साधना स्थल रहा।
गढ़वाल क्षेत्र में कुली बेगार प्रथा, डोला पालकी आंदोलन, आर्य समाज की स्थापना एवं स्वराज प्राप्ति की भावना को जागृत
करने का श्रेय इसी नगर को है। बद्रीदत्त पाण्डेय, जयानन्द भारती व स्व. मुकुंदीलाल बैरिस्टर के यहाँ आने के कारण राजनैतिक क्षेत्र में भी यह नगर स्वतंत्रता आंदोलन का प्रमुख गढ़ बना । पं. जवाहरलाल नेहरू 1930 में पहली बार दुगड्डा नगर में पधारे थे तथा दूसरी बार 1945 में आए।
चन्द्रशेखर आजाद भी नाथोपुर (दुगड्डा ) निवासी साथी भवानी सिंह रावत की प्रेरणा से युवा साथियों के साथ सन् 1930 में दुगड्डा नगर में एक सप्ताह तक रहे और निकट के जंगल में पिस्टल की ट्रेनिंग लिये थे।
बिनसर महादेव –
पौढ़ी व चमोली के बार्डर पर दूधातोली श्रेणी पर स्थित बिनसर महादेव का प्राचीन मंदिर व देवस्थल अपनी पुरातत्त्व समृद्धि के लिए प्रसिद्ध है। इसी देवस्थल को तालेश्वर दानपत्रों में ‘वीरणेश्वर स्वामी’ कहा गया है। कार्तिक पूर्णिमा को यहाँ बड़ा ‘मेला लगता है जिसमें गढ़वाल-कुमाऊँ के लोग सम्मिलित होते हैं। यहाँ से सूर्योदय सूर्यास्त का मनोरम दृश्य दिखता है। नीलकंठ महादेव शिवजी का यह प्रसिद्ध मंदिर गंगाजी के निकट एक पहाड़ी पर है। यहाँ शंभु-निशंभु नामक दो पर्वत हैं।
खिरसू-
पौढी से 19 किमी दूर स्थित खिरसू प्रदूषण मुक्त एक शान्त पर्यटन स्थल है। यहां की हिमाच्छादित श्रृंखलाए मनोरम दृश्य प्रदान करता है। इसके निकट घने बांज एवं देवदार के वन एवं सेब के बागान हैं।
ज्वाला या ज्वाल्पा देवी –
देवी दुर्गा को सर्पित इस क्षेत्र की प्रसिद्ध शक्तिपीठ ज्वाला या ज्वाल्या या दीप्तज्वालेश्वरी पौढ़ी कोटद्वार मोटर मार्ग पर पौढ़ी से लगभग 34 किमी दूर पश्चिमी नयार नदी तट पर स्थित हैं।
लैंसडाउन –
यह सैन्य नगर कोटद्वार से 37 किमी. तथा पौढ़ी से 81 किमी. की दूरी पर स्थित है। इस स्थान पर 4 नवंबर, 1887 को गढ़वाली पल्टन आई और सितम्बर 1890 में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लैंसडाउन के नाम पर इस स्थान का यह नाम पड़ा। पहले इसका नाम कालौ-का-डॉडा था।
भारतीय सेना की विख्यात गढ़वाल राइफल्स का कमांड आफिस यहीं पर स्थित है। यहाँ पर प्रसिद्ध कालेश्वर महादेव का मंदिर है, जिस कारण इस नगर को कालेश्वर भी कहा जाता है। दरबान सिंह नेगी व गबरसिंह नेगी के स्मारक, म्यूजियम, टिफिनटाप और गढ़वाली मैस यहां के दर्शनीय स्थल हैं।
तारकेश्वर मंदिर –
शिव का यह प्रसिद्ध मन्दिर लैन्सडाउन से 36 किमी. की दूरी पर स्थित है। यहीं से विषगंगा व मधुगंगा नदियां निकली हैं।
देवलगढ़ –
देवलगढ़ गढ़वाल राजाओं की राजधानी रही है जो कि बाद में श्रीनगर में स्थापित हुई। यहां राजराजेश्वरी देवी का प्राचीन मंदिर है, जो गढ़वाल नरेशों की कुल देवी के रूप में प्रसिद्ध है। यह श्रीनगर से लगभग 20 किमी दूर चार हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित हैं।
कोट महादेव –
कोट महादेव का मन्दिर पट्टी सितोनस्यूं में स्थित है। यह स्थल महर्षि बाल्मीकि की तप स्थली भी रही है। मान्यता है कि लव-कुश द्वारा राम के अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा रोकने से राम का यहां आगमन हुआ था। मान्यता है कि सीता यहां के फलस्वाड़ी गांव के मैदान में कार्तिकशुक्ल पक्ष द्वादशी के दिन धरती की गोद में समाई थीं।