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चमोली जिले के दर्शनीय स्थल | प्रमुख स्थान

चमोली जिले के दर्शनीय स्थल

फरवरी 1960 में गढ़वाल जनपद से अलग करके चमोली को नया जनपद बनाया गया। 20 जुलाई 1970 को अलकनंदा में आये बाढ़ से चमोली के अधिकाशं राजकीय भवन नष्ट हो गए अतः चमोली से 11 किमी दूर स्थित गोपेश्वर में जिला मुख्यालय बनाया गया। विदिशा के नागवंशी राजा गणपतिनाथ (चौथी सदी) ने यहाँ मध्य हिमाद्रि शैली का एक विशाल मंदिर (रूद्रमहालय) बनवाया था, जिसे अब गोपेश्वर के नाम से जाना जाता है।

यह प्राचीन मंदिरों में राज्य का सबसे बड़ा मंदिर है। इस मंदिर की दीवारों पर चार नागवंशी राजाओं (स्कंदनाग, विभुनाग, अंशुनाग व गणपति नाग) के मुख उत्कीर्ण हैं। इस मंदिर में गुप्त-कालीन सूर्य मूर्ति, उत्तर गुप्तकालीन गंगा मूर्ति, पूर्व मध्यकाल की धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा में बुद्ध मूर्ति व 12वीं सदी की वीणाधर नटराज मूर्ति व 12 भुजी चंडिका आदि दर्शनीय मूर्तियां है।

चमोली जिले के दर्शनीय स्थल
चमोली जिले के दर्शनीय स्थल

उत्तरांखण्ड के पर्वतीय नगरों में गोपेश्वर ही एकमात्र ऐसा नगर है, जहाँ न अधिक गर्मी पड़ती है और न ही अधिक सर्दी । इसके समीपवर्ती दर्शनीय स्थलों में रुद्रनाथ, अनसूया मन्दिर, अत्रिमुनि आश्रम, (आश्रम में बालखिल्य नदी विशाल जलप्रपात के रूप में गिरती है), गोपीनाथ मंदिर या गोपेश्वर शिव मंदिर, , वैतरणी कुन्ड (मूर्ति रहित मदिरों का समूह ) एवं बांज वृक्षों के समूह मुख्य आकर्षण केन्द्र हैं।

इस जिले में स्थित प्रमुख दर्शनीय स्थल इस प्रकार है पंचबदरी – पांचों बदरी (विष्णु भगवान) चमोली जिले में ही स्थित हैं।

बद्रीनाथ (विशालबदरी) –

बद्रीनाथ हरिद्वार से 384 किमी, व जोशी मठ से 51 किमी उत्तर में स्थित है। महाभारत तथा पुराणों में इन्हें मुक्तिप्रदा, योगसिद्धा, बदरीवन, बदरिकाश्रम, विशाला, नरनारायणश्रम आदि नामों से सम्बोधित किया गया यह देश के चारधामों में से एक है। यह समुद्र तल से 3133 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह अत्यधिक ऊंचे नीलकंठ पर्वत शिखर के भव्य पृष्ठ पट सहित, नर (अर्जुन) एवं नारायण (विष्णु) नामक दो पर्वत श्रेणियों के पार्श्व में स्थित है।

इस स्थल पर पहले जंगली बदरियों का कालीन सा बिछा था जिससे इसे बदरी वन का नाम मिला। मन्दिर की ओर अभिमुख अलकानन्दा नदी के तट पर गर्म जल का एक कुन्ड स्थित है जिसे तप्त कुन्ड के नाम से जाना जाता है। इस जल कुन्ड में स्नान करना स्फूर्तिदायक है। मन्दिर प्रति वर्ष अप्रैल-मई के महीने मेंखुलता है एवं शरद ऋतु में नवम्बर के तृतीय सप्ताह के लगभग बन्द हो जाता है। बदरीनाथ धाम के पुजारी दक्षिण भारत स्थित मालाबाद क्षेत्र के आदि शंकराचार्य के वंशजों में से होते हैं जिन्हें ‘रावल‘ कहा जाता है।

बदरीनाथ मंदिर तीन भागों में बंटा है-

सिंहद्वार, मंडल और गर्भगृह । मुख्य प्रतिमा (भगवान विष्णु की चिंतन मुद्रा) काले रंग की है, लेकिन खंडित है। मूर्ति के खंडित होने का मूल कारण शायद नारद कुंड में पड़े रहना है, जिसे शंकराचार्य ने निकालकर स्थापित करवाया था। मुख्य मूर्ति के पार्श्व में नर नारायण की, दाहिने कुबेर की एवं बायें नारद की प्रतिमाएं हैं।

इस मंदिर का निर्माण संभवतः गढ़वाल वंश के प्रारंभिक राजा अजयपाल के शासनकाल में हुआ। परन्तु पूर्ण भव्य मंदिर बनाने का श्रेय कत्यूरी राजवंश को है। शंकुधारी शैली में बना यह मंदिर 15 मीटर ऊँचा है।

बदरीनाथ में पांच प्रसिद्ध कुंड हैं –

तप्तकुंड, नारदकुंड, सत्यपथकुंड,त्रिकोणकुंड और मानुषीकुंड ।

बदरीनाथ में पाँच दर्शनीय शिलाएं हैं –

गरूड़ शिला, नारद शिला, मार्कंडेय शिला, नृसिंह शिला और वाराह शिला । यहां की पंच धाराओं में स्नान एवं आचमन का भी महत्व है। ये धाराएं हैं- कूर्म धारा, प्रह्लाद धारा, इन्दु धारा, उर्वशी धारातथा भृगु धारा।

बदरीनाथ तीर्थ में स्थित प्रमुख गुफाएं हैं –

स्कन्द गुफा, गरूड़शिला गुफा एवं राम गुफा। बदरीनाथ से आगे माणा गांव के निकट मुचकुंद गुफा, गणेश एवं व्यास गुफा है। बदरीनाथ मंदिर से थोड़ी दूरी पर ब्रह्म कपाली है, जहां लोग पितरो को पिण्ड अर्पित करते हैं।

आदिबदरी –

आदिबदरी मंदिर कर्ण प्रयाग से 21 किमी. की दूरी पर है। यहाँ पर सोलह छोटे मन्दिर है जिनमें समतल छत बाले सात मन्दिर अत्यधिक प्राचीन है। इनकी स्थापना गुप्त काल में की गई थी। समस्त मंदिर छोटे-छोटे चबूतरे पर 2 से 6 मीटर की विभिन्न ऊँचाईयों में साथ-साथ स्थापित किये गये है। यहां के मुख्य मंदिर में भगवान विष्णु की प्रतिमा एक मीटर ऊँची है। जिसे काले पत्थर में निर्मित किया गया है। विष्णु भगवान ही आदि बद्रीनाथ है।

भविष्यबदरी –

यह मन्दिर जोशीमठ से 18 किमी. दूर पूर्व भगवान के आधे आकृति की पूजा की जाती है। कहा जाता है कि घो कलयुग आने पर बदरी विशाल लुप्त हो जाएंगे तब यहाँ मूर्ति पूर्ण हो जाएगी और ये ही बदरी विशाल के रूप में पूज्य होंगे।

वृद्ध बदरी –

समुद्र तल से 1380 मीटर की ऊंचाई पर तथा जोशीमठ से 7 किमी की दूरी पर अनिमठ स्थित है। यहाँ पर आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा बद्रीनाथ की प्रतिमा सर्वप्रथम स्थापित की गई। अतः यह प्रतिमा वृद्ध या पहली बदरी कहलाती है।

योगध्यान बदरी –

जोशीमठ से 20 किमी की दूरी पर स्थित पान्डुकेश्वर में योगध्यान बदरी मन्दिर व पाण्डव शिला है। शीतकाल में कपाट बन्द होने पर बदरीनाथ की चतुर्मुखी मूर्ति यहां लाई जाती है। पंचकेदार पंच केदारों में तुंगनाथ, रुद्रनाथ, मदमहेश्वर, कल्पेश्वर एवं केदारनाथ हैं। वर्तमान में चमोली जनपद में रुद्रनाथ एवं कल्पेश्वर महादेव मन्दिर स्थित हैं। शेष तीन रुद्र प्रयाग जिले में है।

पंचकेदारों में से केदारनाथ, मदामहेश्वर (मध्यमेश्वर ), तुंगनाथ एवं रुद्रनाथ मंदिर की व्यवस्था केदारनाथ मन्दिर समिति के अधीन है, जबकि कल्पेश्वर मन्दिर की व्यवस्था बदरीनाथ मन्दिर समिति के अधीन है।

रुद्रनाथ –

चमोली जिले में स्थित इस मंदिर में भगवान शिव के रौद्र मुख का पूजन किया जाता है। रुद्रनाथ मन्दिर 2286 मीटर ऊंचाई पर स्थित है। ऐसी मान्यता है कि शरीर त्यागने के पश्चात् लोगों की आत्मा यहां स्थित वैतरणी नदी पार करके आगे बढ़ती है। ये चतुर्थ केदार के रूप में पितृ तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हैं। यह स्थान गोपेश्वर से 23 किमी की दूरी पर स्थित है। यह क्षेत्र ब्रह्मकमल के लिए जग प्रसिद्ध है। शीतकाल में इनकी पूजा गोपेश्वर मंदिर में होती है।

कल्पेश्वर –

पंचम केदार कल्पेश्वर में भगवान शिव के जटा (जटामौलेश्वर) की पूजा की जाती है। कहते हैं कि इस स्थान पर अप्सरा उर्वशी तथा दुर्वासा ऋषि ने कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या की थी। यह मंदिर शीतकाल में बंद नहीं होता है।

पंच प्रयाग – पवित्र नदियों के संगम पर स्थित प्रयागों का धार्मिक दृष्टि से विशेष महत्व है। गढ़वाल में अलकनन्दा एवं विभिन्न नदियों के संगम पर स्थित पंच प्रयाग विशेष महत्व के हैं। ये हैं- विष्णुप्रयाग, नन्दप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग एवं देवप्रयाग। इनमें से विष्णुप्रयाग, नन्दप्रयाग एवं कर्णप्रयाग चमोली जनपद में स्थित हैं।

विष्णुप्रयाग-

विष्णुप्रयाग अलकनन्दा तथा प. धौलीगंगा के संगम पर है। संगम के दोनों ओर जय-विजय पर्वत हैं। यह समुद्रतल से 1,372 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। ऐसा माना जाता है कि नारदमुनि ने इस स्थान पर भगवान विष्णु की पूजा की थी। यहाँ के विष्णुकुण्ड के निकट विष्णु का मंदिर है। यह स्थल बद्रीनाथ मार्ग पर जोशीमठ से आगे है।

नन्दप्रयाग-

कर्णप्रयाग से 22 किमी. दूर तथा समुद्र तल से 914 मीटर की ऊंचाई पर स्थित नन्दप्रयाग अलकनन्दा एवं नन्दाकिनी का संगम स्थल है। इस संगम का नाम राजा नन्द के नाम पर रखा बताया जाता है। यहाँ विष्णु (गोपाल) मंदिर है।

कर्णप्रयाग –

ऋषिकेश-बद्रीनाथ मार्ग पर स्थित कर्णप्रयाग अलकनन्दा एवं पिण्डर नदियों का संगम स्थल है। यह स्थान कर्ण की तपस्थली रही है। इसी स्थान पर भगवान सूर्य ने कर्ण को कवच, कुण्डल व तूणीर दिए थे। यहाँ उमा देवी के मन्दिर के अलावा कालेश्वर का कालभैरव मन्दिर, जलेश्वर महादेव, चंडिका मंदिर, कर्ण मंदिर और नारायण मन्दिर समूह स्थित हैं।

वसुंधरा प्रपात –

चमोली के अंतिम गांव माणा गाँव से पश्चिम की ओर 5 किमी दूर वसुन्धरा प्रपात हिमाच्छादित शिखरो, ग्लेशियरो एवं ऊँची चट्टानों की पृष्ठभूमि में स्थित है। यहाँ जल 145 मीटर की ऊंचाई से प्रपात के रूप में गिरता है।

गैरसैंण –

चमोली जिले में स्थित गैरसैंण गढ़वाल एवं कुमाऊं का ज्यामितीय केंद्र बिंदु है। गैरसैंण की भौगोलिक स्थिति के कारण रमाशंकर कौशिक समिति ने उत्तरांचल की प्रस्तावित स्थायी राजधानी के लिए उपयुक्त स्थान माना था। चाय के बगानों के लिए प्रसिद्ध इस नगर में राज्य का दूसरा विधानसभा भवन बनाया जा रहा है।

टिम्मर सैंण गुफा –

यह जिले के नीति घाटी में स्थित है। यहाँ गुफा में अरमनाथ की तरह बर्फ का शिवलिंग है, जिस पर ऊपर से जल भी टपकता है।

ग्वालदम –

बागेश्वर सीमा पर स्थित चमोली का यह स्थल प्राकृतिक सुषमा के लिए प्रसिद्ध है। लगभग 1960 मी. की ऊँचाई पर एक टीले के रूप में बसा ग्वालदम देवदार, बांज – बुराँस के घने वृक्षों से ढका हुआ है। यहाँ से नन्दा घुघंटी, नन्दादेवी व त्रिशूल हिमशिखरों का मनोरम दृश्य दिखाई देता है। सेब एवं चाय उत्पादन के लिए भी प्रसिद्ध है।

यहाँ कुमाउंनी-गढ़वाली संस्कृति का अनूठा संगम देखने को मिलता है। ग्वालदम से मात्र 8 किमी. की दूरी पर ऐतिहासिक बधाणगढ़ी है, जहाँ पहुँचकर हिमालय चेहरे के सामने रखा दर्पण सा प्रतीत होता है । यहाँ से 15 किमी. की दूरी पर ‘अथारी’ है जो अपनी पौराणिकता के लिए प्रसिद्ध है।

जोशीमठ –

जोशीमठ नाम संस्कृत शब्द “ज्योर्तिमठ” का विकृत रूप है जिसका अर्थ है शिव के ज्योर्तिलिंग का स्थल । प्राचीन काल में इसे ‘योषि’ कहा जाता था। इस स्थान पर आदिगुरु शंकराचार्य ने तपस्या की थी, उन्होंने ही इस मठ की स्थापना की थी। हिन्दुओं में यह विश्वास है कि शरद ऋतु में भगवान बद्रीनाथ (विष्णु) यहाँ विश्राम करते हैं। यहाँ शंकराचार्य जी द्वारा स्थापित भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार स्वरूप का एक मन्दिर है।

इस मन्दिर में नरसिंह भगवान की प्रतिमा की एक भुजा स्थापित है। मन्दिर के सामने एक भवन है जिसमें पत्थर का एक कुन्ड, पीतल के दो फुहारें (जिन्हें दण्डधारा एवं नरसिंह धारा कहा जाता है)। इन दोनों फुहारों के मध्य राम एवं सीता की पीतल की प्रतिमाएं स्थापित है। यहाँ पर हनुमान, गणेश, सूर्य, गौरीशंकर एवं नवदेवी के अनेकों मन्दिर स्थित है।

रूपकुण्ड –

यह स्थल चमोली जनपद के विकासखण्ड देवाल से 25 किमी तथा समुद्रतल से 4,780 मीटर की ऊँचाई पर त्रिशुली पर्वत की तलहटी में स्थित है। यह झील लगभग 500 फीट व्यास की कटोरे के आकार की है। इस मनोहरी झील से रूपगंगा जलधारा निकलती है। जून-जुलाई के अलावा अधिकांश समय यह जमा रहा है।

यहाँ ढाई किमी. की परिधि में नरकंकाल फैले हुए है, जो अभी भी आश्चर्य बने हुए हैं। इन नरकंकालों की खोज सर्वप्रथम 1942 43 में वन विभाग द्वारा की गई थी। स्वामी प्रणवानंद ने 1956-58 के दौरान इस रहस्य पर काफी शोध किया। डीएनए टेस्ट के अनुसार ये हड्डियां कोंकण क्षेत्र के चितपावन ब्राह्मणों की हैं।

चांदपुर गढ़ी-

आदिबदरी-कर्णप्रयाग मार्ग से 2 किमी दूर लघु गोलाकर पहाड़ी पर चांदपुर गढ़ी स्थित है। गढ़वाल के 52 गढ़ों में से अभी तक केवल यही एक गढ़ बचा है। इसे 9वीं शती का माना जाता है।

फूलों की घाटी –

ऋषिकेश-बद्रीनाथ मार्ग पर गोविन्द घाट 19 किमी पैदल घांघरिया है। यहां से 5 किमी की दूरी पर असंख्य से फूलों से सजी घाटी (वैली ऑफ फ्लावर्स) फूलों की घाटीके नाम से जानी जाती है। वर्ष 2005 में विश्व धरोहर समिति द्वारा फूलों की घाटी को विश्व की धरोहरों की सूची में शामिल कर लिया गया है।

चिनाप घाटी-

फूलों के घाट जैसी यह दूसरी घाटी जोशीमठ से 28 किमी. की दूरी पर है। 5 वर्ग किमी. क्षेत्र में फैले इस घाटी में 500 से अधिक प्रजातियों के पुष्प मिलते हैं। ये पुष्प जून से अक्टूबर तक खिलते है।

औली –

जोशीमठ से सड़क मार्ग से 15 किमी की दूरी पर तथा रोपवे (रोपवे 1993 में शुरू) से 4.15 किमी की दूरी पर स्थित औली गर्मियों में हरी-भरी मखमली घास एवं शीतकाल में हिमक्रीड़ा पर्यटन स्थल के रूप में विश्व पर्यटन मानचित्र पर अंकित है। यहाँ सरकार द्वारा खिलाड़ियों व पर्यटकों हेतु फाइबर ग्लास के छोटे तथा छोटे घर, 600 मी. की चेयरलिफ्ट, 500 मी. की स्कीलिफ्ट तथा स्नोबीटर्स बनाए गए हैं।

यहाँ जनवरी से मार्च तक विविध साहसिक खेल आयोजित होते है। 2,540 मीटर से 3,050 मीटर की ऊंचाई तक फैला यह स्कीइंग क्षेत्र 6 किमी. लम्बा तथा 2 किमी चौड़ा है। यहाँ संजीवनी शिखर पर प्राचीन हनुमान जी व अंजनी माता का प्राचीन मंदिर भी है।

नन्दादेवी –

नन्दा देवी जोशीमठ-मलारी मार्ग पर लगभग 21 किमी की दूरी पर स्थित है। यहां नन्दादेवी का सिद्धपीठ मन्दिर है। भारत सरकार ने ‘नन्दा देवी जैव मण्डल रिजर्व’ को राष्ट्रीय पार्क के रूप में स्थापना 1982 में की थी। वर्ष 1988 में इसे संयुक्त राष्ट्र विश्व विरासत स्थल के रूप में पंजीकृत किया गया।

इसका क्षेत्रफल 5860.69 वर्ग किलोमीटर है। यहाँ विश्व की कई लुप्तप्राय जन्तु प्रजातियां पायीं जाती हैं जो कि इस क्षेत्र के लिए स्थानिक है। नन्दादेवी सेन्चुरी के पश्चिम में गोमुख तथा पूरब में मिलम हिमानियां हैं। यहाँ स्थित ऋषिघाटी 620 वर्ग किमी. क्षेत्र में हैं। नन्दा देवी शिखर 7817 मीटर ऊँचा है जो कि रिजर्व का केन्द्र बिन्दु है तथा भारत का दूसरा सबसे ऊंचा शिखर है।

त्रिशूल पवर्त –

7120 मीटर ऊंचा यह पर्वत शिवधाम के रूप में प्रविष्टि है। रानीखेत, अल्मोड़ा तथा ग्वालदम से यह नुकीला दिखता है जबकि गोपेश्वर से यह सपाट किसी व्यक्ति के मुख के समान दिखता है। फरवरी से जून तक यह गंभीर मुद्रा में, जुलाई से अक्टूबर तक मुस्कराते हुए और नवम्बर से फरवरी तक एक कन्या के मुख की तरह दिखता है।

माणा गाँव ( भारत का अंतिम गाँव )-

चमोली का माणा गांव भारत की सीमा पर बसे अन्तिम गाँवों में से एक है। पुराणों में इसे मणिभद्र पुरी कहा गया है। यह बदरीनाथ से 4 किमी. दूर उत्तर में स्थित है। यहाँ पर अलकनन्दा एवं सरस्वती नदी का संगम होता है, जिसे केशव प्रयाग कहा जाता है। यहां के दर्शनीय स्थलों में मुचकुन्द गुफा, गणेश गुफा, व्यास गुफा व भीमपुल मुख्य हैं।

कहा जाता है कि महर्षि व्यास जी ने व्यास गुफा में बैठकर भागवत कथा को मौखिक तौर पर कहा था और उसे लिखने का काम गणेश जी ने गणेश गुफा में किया था। बदरीनाथ जी की माता की मूर्ति भी यहाँ है। साथ ही यहाँ घंटाकर्ण का मन्दिर भी है। वामन द्वादशी को यहाँ मेला लगता है। सर्दियों में जब बदरीनाथ के कपाट बंद होते हैं तो घंटाकर्ण का मन्दिर भी बंद हो जाता है। इस गांव की सीमांत दूरी पर वसुन्धरा प्रपात जैसा प्रसिद्ध पर्यटन स्थल भी है।

मारछा जनजातियों का ग्रीष्मकालन अधिवास है। ये लोग कृषि, ऊनी वस्त्र शिल्प व पशुपालन से जुड़े हुए हैं। आलू व काफर यहाँ की मुख्य फसल है। बदरीनाथ से माणा तक पक्की सड़क है। अत्यधिक सर्दी में यहाँ के लोग कम ऊँचाई वाले क्षेत्रों में चले जाते हैं। यहाँ पर लगभग 250 परिवार आवासित हैं व जनसंख्या लगभग 1500 है। यहाँ सरस्वती नदी पर बना पाषाण शिला पुल (भीम पुल) विश्व में अद्वितीय है।

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