बद्रीनाथ धाम के अन्य तीर्थस्थल –
(1) आदिकेदारेश्वर मंदिर-
बद्रीनाथ जी के मंदिर के मुख्य द्वार जिसे सिंह द्वार कहते हैं से पहले ही तप्तकुण्ड के पास आदि केदार शिवजी का प्राचीनतम मंदिर है। यहां शिवजी अपनी सम्पूर्ण कला में स्थित रहते हैं। यहाँ शिवलिंग में पन्द्रह कलाऐं मौजूद हैं। जो मनुष्य बद्रीधाम स्थित इस शिव मंदिर में केदारेश्वर के दर्शन करता है उसे अनेक जन्मों के पापों से मुक्ति मिल जाती है। शिवजी कहते हैं कि जो व्यक्ति यहाँ मेरे दर्शन करता है वह मनुष्य योनि से मुक्त हो जाता है।
जो यात्री केदारनाथ धाम नहीं जा पाते उन्हें बद्रीनाथ जी के दर्शन करने से पूर्व श्री केदारेश्वर जी के दर्शन करना चाहिये। ऐसा माना जाता है कि यदि केदारेश्वर के दर्शन नहीं किये तो यात्रियों को यात्रा का फल प्राप्त नहीं होता है । जो व्यक्ति बिना केदारनाथ भगवान के दर्शन किये बद्रीनाथ क्षेत्र की यात्रा करता है तो उसकी यह धर्मयात्रा निष्फल हो जाती है, ऐसा शिवपुराण में वर्णित है : –
इसी कारण बद्रीधाम को प्राचीन शिवधाम भी कहा जाता है। शिवजी के इस धाम के संबंध में स्कन्द पुराण में वर्णित है कि एक बार ब्रह्माजी अपनी रूपवती पुत्री संध्या पर मुग्ध हो गये तब भगवान शंकर ने ब्रहमा जी के इस आचरण को लोक विरुद्ध समझते हुये क्रोध में उनका एक सिर काट दिया। इस सिर के काटने से पहले ब्रहमा जी के पांच सिर थे। ब्रह्मा जी का सिर काट देने से शंकर जी को ब्रह्म हत्या का पाप लगा इस पाप से मुक्ति पाने के लिये शंकर भगवान इस गंधमादन पर्वत पर आकर तपस्या करने लगे। यही उन्हें ब्रह्म हत्या से मुक्ति प्राप्त हुई। इसी कारण इस सम्पूर्ण क्षेत्र को केदारखण्ड के नाम से पुकारा जाता था। भगवान विष्णु जी जब यहाँ पर तपस्या के लिये आये तब भगवान शंकर ने यह स्थान भगवान विष्णु के लिये छोड़कर पास के पर्वत पर स्थान ग्रहण कर लिया जो अब केदारधाम के नाम से जाना जाता है।
(2) तप्तकुण्ड –
बद्रीनाथ मन्दिर के बाहर अलकनन्दा नदी के तट पर गर्म जल का कुण्ड है जिसमें श्रद्धालु यात्री मन्दिर के दर्शन करने से पहले स्नान करते है। अलकनंदा नदी के अत्यंत निकट यह गर्म जल का कुण्ड भगवान का चमत्कार ही है । यह कुण्ड अपनी औषधीय विशेषताओं के कारण भी प्रसिद्ध है।
जिस प्रकार प्रकाश से अंधकार दूर हो जाता है उसी प्रकार इस तप्त कुण्ड में स्नान करने से पापी प्राणी भी पापरहित हो जाता है। ऐसा कहा जाता है कि इस कुण्ड में अग्निदेव वास करते हैं इसी कारण इस कुण्ड को अग्निकुण्ड भी कहा जाता है। इस अग्निकुण्ड के सम्बंध में स्कन्द पुराण में एक कथा का उल्लेख है जिसके अनुसार महर्षि भृगु की पत्नी पर एक राक्षस शादी के पूर्व से ही आसक्त था। एक बार महर्षि भृगु अपने आश्रम से बाहर गये हुये थे अवसर देखकर वह राक्षस भृगु के आश्रम में पहुंच गया और वहां अग्नि की उपस्थिति में ही राक्षस मह भृगु की गर्भवती पत्नी को उठाकर गया।
रास्ते में ही गर्भवती स्त्री का गर्भं च्यवित (प्रसव) हो गया जिससे महर्षि च्यवन का जन्म हुआ महर्षि च्यवन के तेज से उस राक्षस की तत्काल मृत्यु हो गई। उधर भृगु ऋषि जब आश्रम में आये तो उन्हें अग्नि ने सम्पूर्ण वृतांत बताया महर्षि भृगु यह सुनकर अत्यन्त चिन्तित एवं क्रोधित हुये उन्होंने क्रोध में अग्निदेव को सर्वभक्षी होने का श्राप दे दिया। क्योंकि अग्नि की उपस्थिति में ही राक्षस ने यह दुराचार किया था श्राप के कारण अग्निदेव बहुत दुखी हुये तथा इस श्राप से मुक्ति पाने के लिये उपाय सोचने लगे।
एक बार प्रयाग में, जिसे तीर्थराज के नाम से भी जाना जाता है, मैं ऋषि मुनी, महात्माओं आदि का सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन के सभापति व्यास जी थे। इस सम्मेलन की जानकारी मिलते ही अग्निदेव यहाँ आये और यहाँ आकर उन्होंने सभी ऋषि मुनियों से स्वयं को सर्वभक्षी होने के श्राप से मुक्ति पाने के बारे में उपाय पूछा। अग्नि देव की व्यथा को सुनकर वेद व्यास जी ने कहा- है अग्निदेव आप घबराये नहीं आप भगवान विष्णु जी के धाम बद्रीकाश्रम में जाये वहाँ भगवान बद्रीनाथ आपका दुःख अवश्य दूर करेंगे, वहीं पर आपको इस श्राप से मुक्ति प्राप्त होगी।
सभी देव ऋषियों एवं व्यास जी की आज्ञा का पालन करते हुये अग्निदेव बद्रीधाम में आये और यहाँ अलकनंदा में स्नान कर भगवान विष्णु जी की पूजा अर्चना कर तपस्या करने लगे। अग्निदेव की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु जी ने उन्हें दर्शन देते हुये वर मांगने के लिये कहा तब अग्निदेव ने हाथ जोड़कर भगवान से प्रार्थना की कि यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं तो मुझे सर्वभक्षी होने के श्राप से मुक्ति दिलायें तब भगवान विष्णु जी बोले – है अग्निदेव आपको श्राप से मुक्ति तो उसी क्षण मिल गई थी जब आपने इस पवित्र क्षेत्र के दर्शन किये एवं यहाँ कदम रखा था अब आप यहाँ द्रव रूप में रहकर यहाँ आने वाले प्राणियों को पाप मुक्त करें। उसी समय से अग्निदेव बद्रीधाम में गर्म जलधारा के में इस कुण्ड में निवास करने लगे। यहीं गर्मजल का कुण्ड तप्तकुण्ड के नाम से प्रसिद्ध है।
बद्रीधाम जो कि हिम शिखरों के मध्य स्थित है जहाँ अत्याधिक सर्दी के कारण प्राणी का खून भी जलने लगता है वहाँ यह गर्मजल का कुण्ड यात्रियों के लिये एक वरदान है। इस कुण्ड में स्नान, जप, पूजा, अर्चना करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। इसके पास ही नारद कुण्ड, ब्रहम कुण्ड, गौरी कुण्ड, सूर्य कुण्ड आदि मौजूद हैं।
(3) पंचशिलाऐं –
मन्दिर के निकट ही नारद शिला, बाराह शिला, नृसिंह शिला, गरुड़ शिला और मार्कण्डेय शिला नामक पांच शिलायें है। जिन्हें पंच शिला के नाम से जाना जाता है। ये शिलायें तप्त कुण्ड के ऊपर स्थित है। जो यात्री केदारनाथ न जाकर सीधे बद्रीधाम आ जाते हैं वह सर्वप्रथम इन शिलाओं के दर्शन करते हैं और उसके बाद मन्दिर में दर्शन हेतु जाते हैं ।
1. नारद शिला –
तप्तकुण्ड के पास अलकनंदा के किनारे वाली शिला को नारद शिला कहते हैं। इसका आकार त्रिकोणीय है। इस शिला के नीचे नारद कुण्ड है । इस कुण्ड के अन्दर से ही शंकराचार्य ने भगवान विष्णु जी की मूर्ति को प्राप्त किया था। महर्षि नारद जी ने सतयुग में भगवान विष्णु जी के दर्शन एवं उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिये साठ हजार वर्ष तक इस शिला पर बैठकर तप किया था। तपस्या के समय नारद जी ने केवल वायु का ही आहार किया था ऐसा स्कन्द पुराण में वर्णित है। नारद जी की इस कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर विष्णु जी एक ब्राह्मण रूप में प्रकट हुये जब नारद जी ने ब्राह्मण से उनका परिचय जानना चाहा तब भगवान विष्णु जी ने ब्राह्मण रूप त्याग कर अपने चतुर्भुज रूप में दर्शन दिये।
भगवान विष्णु के इस रूप में दर्शन करके नारद जी भाव विभोर हो गये तथा भगवान की प्रेममयी स्तुति करने लगे तब विष्णु जी ने उनसे वरदान मांगने के लिये कहा । नारदजी ने भगवान विष्णु के हाथ जोड़कर विनती की कि है भगवान आपके चरणों में मेरी अविचल भक्ति भाव हमेशा रहे, मेरे इस स्थान पर आप हमेशा विराजमान रहें, मेरे इस तीर्थ के दर्शन, स्पर्श एवं स्नान या आचमन करने वाले प्राणी को मोक्ष की प्राप्ति हो । नारद जी को इन वरदानों को देकर भगवान विष्णु अन्तर्ध्यान हो गये। तभी से यह शिला नारद शिला तीर्थ के रूप में पूजित होती रही है।
2. गरुड़ शिला –
बद्रीनाथ मंदिर के बाहर शिवमंदिर केदारेश्वर के पास तप्तकुण्ड के जल के ऊपर स्थित खड़ी हुई शिला को गरुड़ शिला के नाम से पूजा जाता है। स्कन्ध पुराण के अनुसार महर्षि कश्यप के दो पुत्र अरुण और गरुड़ थे । अरुण तो भगवान सूर्य के सारथी बने। गरुड़जी की इच्छा भगवान विष्णु जी का वाहन बनने की थी। अपनी इस अभिलाषा को पूर्ण करने के लिये गरुड़ जी बद्रीनाथ धाम पहुंचे बद्रीधाम पहुंचकर गंध मादन पर्वत के दक्षिण भाग में हजारों वर्षों तक उन्होंने भगवान विष्णु का सारथी बनने के लिये तपस्या की। गरुड़ जी की इस भक्ति भावना को देखकर विष्णु ने प्रसन्न होकर उन्हें अपने चतुर्भुज रूप में दर्शन दिये तथा उपन वर मांगने के लिये कहा, भगवान विष्णु जी के आशीर्वाद से प्रेरित होकर गरुड़ जी ने हाथ जोड़कर कहा कि हे भगवान यदि आप मेरी भक्ति से प्रसन्न हैं तो मुझे तीन वरदान प्रदान करें।
एक- केवल मैं ही आपका वाहन बनूं। द्वितीय- मुझे जल, वीर्य एवं पराक्रम में कोई भी देवता, दैत्य आदि न जीत सके। तृतीय- यह स्थान जहाँ आपने मुझे दर्शन दिये हैं इसके दर्शन एवं स्मरण से ही किसी प्राणी को विषजनित हानि न हो। भगवान विष्ण जी ने गरुड़ को तीनों वरदान प्रदान किये। इस शिला के दर्शन करने से ही मनुष्य को विष से हानि नहीं होती तथा सर्प का भय समाप्त हो जाता है जो इस “गरुड़ शिला“ जिस पर बैठकर गरुड़ जी ने तपस्या की थी के दर्शन करता है उसे पुण्य की प्राप्ति होती है।
3. नृसिंह शिला –
बद्रीनाथ मंदिर के पास अलकनंदा नदी में नारद शिला के पीछे एक शिला है जो शेर के खुले हुये मुख के समान दिखाई देती है। यह शिला नृसिंह शिला के नाम से जानी जाती है। स्कन्द पुराण में वर्णित है। कि विष्णु के परमभक्त प्रहलाद को हिरणकश्यप के द्वारा तमाम यातनाएँ। दी जा रही थी तब प्रहलाद की रक्षा हेतु भगवान विष्णु जी ने नृसिंह रूप धारण करके हिरण्यकश्यप को मारा था। हिरण्यकश्यप का वध करने के बाद भी भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ उनका यह क्रोधित अद्भुत रूप देखकर देवतागण भयभीत हो गये थे।
सभी देवताओं ने मिलकर भगवान विष्णु से विनती की, कि आप इस अद्भुत रूप को त्याग कर पुनः उसी चतुर्भुज रूप में दर्शन दें। देवताओं की विनती सुनकर भगवान अपना क्रोध शांत करने के लिये अपने बद्रिकाश्रम चले गये। बद्रिकाश्रम में आकर विष्णु जी अलकनंदा के शीतल जल में स्नान करने लगे पवित्र शीलत धारा में स्नान करने से भगवान का क्रोध शांत हो गया और वह पुनः अपने पहले वाले रूप में दर्शन देने लगे। ऋषि मनियों के निवेदन पर भगवान विष्णु जहाँ स्नान किया था शिला के रूप रहना स्वीकार कर लिया। आज भी प्राणी शिला श्रद्धा दर्शन करता पुण्य की प्राप्ति कर लेता जो प्राणी यहाँ जप और भगवान विष्णु जी की पूजा अर्चना तीन दिनों तक करता है वैकुण्ठ की प्राप्ति होती वह फिर पाप भागी नहीं रहते।
4. वराही शिला –
अलकनंदा नदी मध्य नारद कुण्ड पास एक जल में हुई ऊँची शिला है। ध्यान से देखने पर इस शिला की आकृति सूकर (सुअर) जैसी प्रतीत होती इसे ही वराह शिला कहा जाता पुराणिक कथा कहा गया कि जब पृथ्वी जल डूब गई तब ब्रह्मा जी जल से बाहर लाने का विचार कर रहे उसी समय उनकी नासिका छोटे से आकार के वाराह शिशु निकले। देखते ही देखते इस वराह शिशु ने विशाल रूप धारण कर लिया यह वराह रूप विष्णु भगवान का साक्षात अवतार था।
बारह रूप में भगवान विष्णु जी जल की गहराई प्रवेश कर गये जल के अंदर भगवान विष्णु जी दैत्य हिरण्याक्ष जो महापराक्रमी था को मार दिया तथा अपने वाराह रूप विशाल दांतों ऊपर पृथ्वी को रखकर जल से बाहर ले आये तथा पृथ्वी को वही जल ऊपर स्थापित कर दिया। पृथ्वी को स्थापित करने के उपरांत भगवान विष्णु जी अपने बद्रिकाश्रम में चले आये और यहाँ आकर वह अलकनंदा में शिला के रूप में वास करने लगे। इसी कारण इस शिला को वाराह शिला के रूप में पूजा जाता है जो प्राणी उपवास करके एक माह तक इस शिला का पूजन करता है उसे मन चाहा फल प्राप्त होता है।
5. मार्कण्डेय शिला –
यह शिला नारद शिला के पास अलकनंदा नदी के मध्य स्थित है। ज्यादातर यह शिला जलधारा के अन्दर डूबी रहती है। इस शिला के ऊपर तप्तकुण्ड की जलधारा गिरती रहती है। कहा जाता है कि एक बार त्रेतायुग के अंत में महर्षि मार्कण्डेय मथुरा आये यहाँ बद्रिकाश्रम से तथा नारद जी भी आये हुये थे। नारद जी ने महर्षि मार्कण्डेय से बद्रिकाश्रम में आकर भगवान विष्णु जी की तपस्या करने के लिये कहा। अतः महर्षि। मार्कण्डेय ने बद्रिकाश्रम आकर इस शिला पर बैठकर तपस्या की तीन रात तक “ॐ नारायाणाय नमः” मंत्र का जाप किया। इससे प्रसन्न होकर भगवान विष्णु जी ने उन्हें दर्शन देकर उनकी आ साठकल्प कर दिया। जो भी प्राणी इस शिला की पूजा करता है उस पर भगवान विष्णु जी की हमेशा कृपा रहती है।
4. ब्रह्मकपाल –
बद्रीधाम की यात्रा करने वाले श्रद्धालुओं में से अधिकांश यात्री यहीं पर अपने पितृरौ की तृप्ति हेतु पिण्डदान करते है। अलकनन्दा के तट पर स्थित इस सपाट चबूतरे पर हिन्दू अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति हेतु हिन्दू प्रथा के अनुसार यहाँ चावल पकाकर महाप्रसाद के रूप में उससे पितृरौ के पिण्ड और तर्पण दिये जाते है जिससे उनके पितृरौ को अक्षय मुक्ति प्राप्त होती है। ब्रह्मकपाल के सम्बन्ध में कथा है कि जब ब्रह्मा जी अपनी पुत्री संध्या पर आसक्त हुये तब शिवजी ने क्रोध में उनका एक सिर काट डाला ।
ब्रह्मा जी पहले पंचमुखी थे सिर कटने के बाद से वह चतुर्मुखी हो गये। ब्रह्मा जी के सिर काट देने से शिव जी को ब्रह्म हत्या का पाप लगा जिससे वह कटा हुआ सिर उनके हाथ से चिपक गया उस सिर को छुड़ाने एवं ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिये शिवजी कई तीर्थो पर गये अंत में बद्रीधाम में पहुँचकर वह कपाल शिवजी के हाथ से छूटकर अलकनन्दा में गिर गया अतः यह स्थान ब्रह्मकपाल कहलाया ।
5. बसुधारा –
यह धारा बद्रीनाथ मंदिर से 8 कि०मी० की दूरी पर स्थित है। इसके दर्शन हेतु जाने के लिये जोशीमठ में ही अधिकारियों से अनुमति पत्र लेना पड़ता है। यहाँ पर जल की धारा 400 फीट की ऊँचाई से गिरती है। इस जलधारा की बूंदें हवा में उड़ती हैं, लोगों का विश्वास है कि पापियों के मस्तिक के ऊपर इसकी बूदें नहीं गिरती ।
6. मातामूर्ति –
बद्रीनाथ मन्दिर से करीब 4 कि०मी० उत्तर की दिशा में माणा गाँव के पास अलकनन्दा नदी के दायें तट पर यह मन्दिर स्थित है जो कि बद्रीनाथ जी की माँ को समर्पित है । बामन द्वादशी के दिन यात्री एवं श्रद्धालु बद्रीनारायण जी की माता के दर्शन करने के लिये इस मन्दिर में आते है । स्थानीय लोगों की यह मान्यता है कि जिन माँ-बाप के पुत्र-पुत्री सही मार्ग से भटक जाते है वह माँ बाप यदि यहाँ पूजा अर्चना करें तो उनके भटके हुये बच्चे सही मार्ग पर आ जाते है।
7. चरण पादुका –
बद्रीनाथ मन्दिर के पास हरे-भरे मैदान में एक ऊँचे टीले पर एक चट्टान के ऊपर भगवान विष्णु के पद चिन्ह पादुका के रूप में दिखाई देते है ।
8. सतोपन्थ –
सतोपन्थ समुद्र तल से 14,400 फीट की ऊँचाई पर स्थित हैं । यह विश्व की सबसे सुन्दर झीलों में से एक हैं। यह तिकोने आकार की झील चारों तरफ से ऊँचे बर्फीले पहाड़ों से घिरी हुई हैं। ऐसी मान्यता हैं कि इस तिकोनी झील के तीनो कोनों पर ब्रह्म, विष्णु, महेश विराजमान हैं । इसी कारण पुराणों में इसे “त्रिकोण मण्डलाकार तीर्थ” भी कहा गया हैं । इस झील के पानी को अत्यंत पवित्र माना जाता हैं। यहाँ का मौसम साफ होने पर सतोपन्थ से स्वर्गारोहण का शिखर स्पष्ट दिखाई देता हैं । कहा जाता हैं कि इसी पर्वत पर चढ़कर पाण्डव स्वर्ग लोक गये थे ।
इन स्थानों के अलावा शेषनेत्र, सरस्वती धारा, केशव प्रयाग, भीम पुल, कलप ग्राम, अलकापुरी आदि स्थान देखने एवं दर्शन करने योग्य है। यात्री बद्रीनाथ के दर्शन करने के उपरांत पुनः जोशीमठ, चमोली, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग, श्रीनगर, देवप्रयाग होते हुए 268 कि०मी० की यात्रा करते हुए वापस ऋषीकेश, हरिद्वार आ जाते हैं तथा यहाँ से अपने गन्तव्य स्थान को प्रस्थान करते है ।