भगवान विष्णु का दरबार : बद्रीधाम (बद्रीनाथ की कथा)
उत्तराखण्ड के चमोली जिले की हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा चारों धामों में सर्वश्रेष्ठ हिन्दू धर्म का सर्वाधिक पावन तीर्थस्थल बद्रीनाथ स्थित है जो भारत के समस्त हिन्दू श्रृद्धालुओं की आस्था का केन्द्र है धर्मशास्त्रों में इसकी पवित्रता के बारे में लिखा है कि “स्वर्ग” धरती और पाताल में कई तीर्थस्थल है किन्तु बद्रीधाम जैसा न कोई है, और न कोई होगा”।
बद्रीधाम में गंगा जी अलकनंदा के रूप में बहती है। अलकनंदा आदि गंगा है जो मनुष्य इसमें स्नान करता है उसे पुण्य की प्राप्ति होती है विष्णु पदी गंगा “अलकनंदा“ के दर्शन से मनुष्य के संपूर्ण कष्टों का नाश हो जाता है। आज इस कलयुग में वह मनुष्य अत्यन्त भाग्यशाली है जो बद्रीधाम पहुंचकर भगवान विष्णु जी के मंदिर के दर्शन करता है। ऐसा माना जाता है यहां हर प्राणी विष्णु तुल्य हो जाता है। इस क्षेत्र में भयंकर पापों का नाश करने वाली अलकनंदा मौजूद है। यहां देवी-देवता, गंधर्व यक्ष, राक्षस, किन्नर सभी विष्णु जी की भक्ति में लगे रहते है।

धार्मिक साहित्य एवं पुराण में वर्णित कथाओं के अनुसार एक वार नारद जी भगवान विष्णु जी के पास आये तो देखा कि भगवान विष्णु क्षीर सागर में शेषनाग शैय्या पर विराजमान हैं। देवी लक्ष्मी जी उनके चरण कमल दबा रही हैं उनके इस तरह आराम करने को देखकर देवर्षि नारद जी बोले कि है भगवान आपके इस तरह से शेषनाग शैय्या पर लेटने एवं लक्ष्मी मां द्वारा चरण दबाने में संसारिकता की झलक दिखाई देती है आप ऐसा कार्य करें जिसे प्राणी आपको अपना आदर्श मानें नारद जी की बातों का भगवान विष्णु पर प्रभाव पड़ा। एक दिन उन्होंने लक्ष्मी जी को नागलोक में भेज दिया और सभी वस्तुओं का त्याग करके हिमालय पर्वत पर तप करने के लिये चल दिये और बद्री क्षेत्र में आकर रूक गये उस समय यहां पर भगवान शंकर का निवास था। बद्रीधाम में तप्त कुण्ड के पास आज भी भगवान शंकर का पुजा स्थल केदारेश्वर मंदिर मौजूद है। भगवान विष्णु के आने पर शंकर जी ने बद्री क्षेत्र को छोड़कर केदार धाम को अपना निवास स्थान बना लिया।
भगवान विष्णु ने बद्री क्षेत्र की प्राकृतिक सुन्दरता व एकांतता को देखकर यहीं पर रुककर तप करने का निश्चय किया। वैकुण्ठ लोक से आने के बाद भगवान विष्णु जी ने यहाँ पर सर्वप्रथम अपने चरणों का स्पर्श जिस शिला पर किया वह शिला आज भी मौजूद है तथा उस पर बने चरण अभी भी दिखाई देते है। हिमालय के इसी केदारखण्ड में भगवान नारायण (विष्णु) ने अपना वास बना लिया तथा वह यहाँ ऋषि मुनियों के साथ मिलकर तपस्या व योग ध्यान करने लगे। उधर जब लक्ष्मी जी नागलोक से वापस क्षीर सागर में आई तो वे शेषनाग शय्या पर भगवान को न पाकर उनकी खोज में निकल पड़ी।
नारद जी द्वारा उन्हें भगवान नारायण के द्वारा केदारखण्ड के बद्रिकाश्रम में तपस्या करने की जानकारी प्राप्त हुई खोजते खोजते लक्ष्मी जी बद्रिकाश्रम के उस स्थान पर आ गई जहां भगवान विष्णु योग ध्यान में लीन थे। लक्ष्मी जी ने जब यहां धूप, वर्षा, सर्दी आदि प्राकृतिक कष्टों को सहन करते हुये भगवान को तपस्या में लीन देखा तो वह बद्री (बेर) वृक्ष बनकर उनकी रक्षा करने लगीं। इस तरह काफी समय उपरांत जब भगवान विष्णु जी ने अपना योग ध्यान समाप्त किया तो उन्होंने देखा कि लक्ष्मी जी बद्री वृक्ष के रूप में उनकी सेवा कर रही थी। यह देखकर भगवान नारायण ने लक्ष्मी जी को
वरदान दिया कि तुमने बद्री बनकर अपने नाथ की सेवा की है अतः आज के बाद मेरे साथ तुम्हारी भी पूजा की जावेगी यह स्थान “बद्रीनाथ“ के रूप में पवित्र और मोक्षदायिक होगा। लक्ष्मी ने वरदान प्राप्त करने के बाद भगवान नारायण से प्रार्थना की कि वह योग ध्यान की यह मुद्रा त्यागकर शृांगारिक मुद्रा को पुनः धारण करें। भगवान नारायण तब संसार के कल्याण हेतु तीन शर्तों पर शृांगारिक रूप को धारण करने हेतु सहमत हुये।
पुराणों के आधार पर यह तीन शर्तें थी – प्रथम- बद्रीनाथ धाम में हमेशा तपोभूमि रहेगा, यहाँ संसारिक वासनाऐं प्रवेश नहीं करेंगी। द्वितीय- भगवान नारायण की पूजा दोनों ही रूपों में हुआ करेगी। देवता ऋषिगण इनकी पूजा ध्यान मुद्रा में तथा मानव इनकी पूजा शृांगारिक मुद्रा में किया करेंगे। तृतीय- योगध्यान अवस्था में लक्ष्मी जी भगवान के बाईं ओर बैठेंगी जबकि शृांगारिक अवस्था में लक्ष्मी जी भगवान के दाईं ओर बैठेंगी।
यहां लक्ष्मी जी के दाईं ओर बैठने का अर्थ है कि यहाँ लक्ष्मी जी की पूजा पत्नी के रूप में न होकर भगवान में मौजूद दैवीय शक्ति के रूप में की जाती है। जिस शक्ति के प्रभाव से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का संचालन हो रहा है। ऐसी स्थिति में भगवान के पुजारी को भी वामांगी (पत्नी) न रखने का नियम है। इसी कारण आज भी बद्रीधाम में बद्रीनाथ जी की पूजा करने वाले पुजारी जो कि रावल कहलाते हैं उन्हें विवाह न करने की बंदिश है। यदि कोई रावल विवाह कर लेता है तो उसे पुजारी के कार्य से हटना ही पड़ता है।
इसी योग ध्यान अवस्था व श्रांगारिक अवस्था के अनुसार ही जब भगवान योग ध्यान अवस्था में होते हैं तो बद्रीनाथ जी की पूजा देवता करते हैं उस समय मंदिर के कपाट मनुष्यों के लिये बंद कर दिये जाते हैं। यह व्यवस्था आज भी उसी रूप में चली आ रही है। जब भगवान शृांगारिक अवस्था में होते हैं तब उनकी इस अवस्थाओं में छः माह तक पूजा अर्चना मनुष्यों द्वारा की जाती है। इसके लिये छः माह तक मंदिर के कपाट मनुष्यों के लिये खुले रहते हैं। इस तरह बद्रीनाथ धाम में विष्णु
भगवान हमेशा निवास करते हैं इसी कारण बद्रीधाम के स्मरण से ही मनुष्य के कष्टों का विनाश हो जाता है। स्कन्द पुराण के अनुसार बद्रीनाथ धाम को आठवें वैकुण्ठ के नाम से भी पुकारा जाता है। विष्णु भगवान का यह तीर्थ सभी लोकों में दुर्लभ माना जाता है। बद्रीधाम के दर्शन मात्र से ही महापापी व्यक्ति भी पापमुक्त हो जाता है। तप, यज्ञ, योग, समाधि तथा संपूर्ण तीर्थ स्थलों के दर्शन एवं स्नान से जो पुण्य मिलता है वह पुण्य मात्र बद्रीधाम के दर्शन करने से प्राप्त हो जाते हैं। केदारखण्ड में बद्रीनाथ जी के धार्मिक महत्व के संबंध में उल्लेखित कि इस कलयुग में जो मनुष्य बद्रीधाम के दर्शन करता है वह धन्य है। स्कंद पुराण के अनुसार बद्रीधाम क्षेत्र में देवताओं, ऋषियों मुनियों तथा अनेक तीर्थों का वास है इसलिये इसे विशाला के नाम से भी जान जाता है।
इसी कारण इसे “बद्री विशाल” के नाम से पुकारा जाता है। बराह पुराण में ही बद्री क्षेत्र को विशालापुरी के नाम से पुकारा गया है। इस संबंध में एक कथा का उल्लेख है कि सूर्यवंश में एक राजा थे जिनका नाम विशाल था। इनके शत्रुओं ने मिलकर इन्हें युद्ध में पराजित करके इनके समस्त राजपाट एवं राज्य को इनसे छीन लिया। राज्य एवं सत्ता के छिन जाने से यह अत्यन्त लज्जित एवं दुखी होकर राजा विशाल हिमालय पर्वत के इस गन्धमादन पर्वत पर आ गये। इस पर्वत को पुराणों में नर नारायण पर्वत भी कहा जाता है।
इस पर्वत पर एक विशेष प्रकार की पवित्र मादक गन्ध आती है। राजा विशाल इसी पर्वत की एक गुफा के अन्दर बैठकर तपस्या करने लगे । उनकी इस कठोर भक्तिभाव पूर्ण तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें । दर्शन दिये एवं प्रसन्न होकर राजा विशाल से वर मांगने के लिये कहा तब भगवान विष्णु से राजा विशाल ने कहा कि है भगवान यदि आप मेरी तपस्या से प्रसन्न हैं तो मुझे मेरा खोया हुआ राजपाट पुनः मिल जाने का वरदान प्रदान करें। राजा विशाल की राज्य प्राप्त करने की लालसा को देखकर विष्णु जी ने कहा- हे राजा यहां आकर मेरी तपस्या करने के बाद राजसुख भोगने की इच्छा करना व्यर्थ है । तुम यहां तपस्या करके मोक्ष की प्राप्ति करो किन्तु राजा विशाल ने कहा कि है भगवान मेरी इच्छा अभी होती है इसी आशय को शिवपुराण कोटि रुद्र संहिता में व्यक्त किया है
दर्शन के उपरान्त यात्री सीढ़ियाँ चढकर बद्रीनाथ मन्दिर सिंह द्वारा में प्रवेश करते हैं। यहाँ विष्णु भगवान वाहन गरूड़ के दर्शन होते हैं। थोड़ा आगे चलकर सीढ़ियाँ चढने मन्दिर मुख्य द्वार में प्रवेश करके सभा मण्डप में पहुँचा जाता हैं सभा मण्डप बाद गर्भगृह मन्दिर के अन्दर गर्भगृह भगवान विष्णु की शालग्राम शिला पद्मासन मुद्रा बैठी हुई मूर्ति है। भगवान विष्णु मूर्ति बहुमूल्यवान वस्त्र हीरा जड़ित मुकुट सुशोभित बद्रीनाथ जी की मूर्ति श्रृंगारिक मुद्रा धारण किये है। भगवान पास ही धनपति कुबेर नारदमुनी बैठे हुये है। इनके समीप दांई ओर नर नारायण मौजूद पास में भगवान विष्णु पत्नी श्री देवी भूदेवी भी मौजूद भगवान इसी दरबार बद्री पंचायत कहा है।
विष्णु युग में प्राणियों हित हेतु विभिन्न स्वरूपों में पालनहार एवं मोक्षदाता रूप में विद्यमान हैं। सतयुग भगवान विष्णु साक्षात रूप प्राणियों हितार्थ रहे त्रेतायुग भगवान विष्णु के दर्शन केवल ऋषि मुनियों योग द्वारा ही होते थे। द्वापर में ब भगवान कृष्णावतार लिया। उस समय ऋषि मुनियों भी भगवान विष्णु के दर्शन दुर्लभ गये। इस स्थिति देखकर सभी देवता ऋषि ब्रह्मा को साथ लेकर क्षीर सागर पर पहुंचे और वहां भगवान विष्णु वंदना तथा उसने दर्शन के लिये निवेदन किया। ऋषि देवताओं की प्रार्थना सुनकर विष्णु बोले- ऋषि मुनि व शीघ्र कलयुग प्रारंभ होने रहा है। इस युग में मनुष्य धर्म कर्म भक्तिभाव से विमुख हो जायेंगे सभी प्राणी धर्म विरुद्ध
आचरण प्रारंभ कर देंगे। ऐसी स्थिति में साक्षत रूप में मैं नहीं रह सकता। बद्री क्षेत्र में नारदशिला के नीचे अलकनंदा नदी में मेरी एक दिव्य मूर्ति मिलेगी जिसे निकालकर मंदिर में स्थापित करना। जो भी प्राणी इस मूर्ति के दर्शन करेगा उसे इस मूर्ति के दर्शन मात्र से ही मेरे साक्षात दर्शन बराबर फल प्राप्त होगा।
कालान्तर में आज से लगभग 1200 वर्ष पूर्व दक्षिण भारत के कालड़ी गांव में एक ब्राह्मण के घर भगवान शंकर के अवतार के रूप में एक बालक ने जन्म लिया जो आदि गुरू शंकराचार्य के रूप में प्रसिद्ध हुआ। शंकराचार्य ने मात्र 12 वर्ष की उम्र में ही शास्त्रों का अध्ययन कर लिया था। इतनी कम उम्र में ही शंकराचार्य के सैकड़ों शिष्य बन चुके थे शंकराचार्य असाधारण बुद्धि एवं प्रतिभा के स्वामी होने के कारण छोटी उम्र में ही सभी शास्त्रों, पुराणों का अध्ययन कर चुके थे। भारत को एक सूत्र में बाँधने के लिये शंकराचार्य ने चार मठों – हिमालय पर्वत के केदारखण्ड में जोशीमठ, जगन्नाथपुरी उड़ीसा में गोवर्धन मठ, दक्षिण में मैसूर में श्रृंगारीमठ तथा द्वारिकापुरी गुजरात में शारदा मठ की स्थापना की थी।
लगभग 12 वर्ष की आयु में शंकराचार्य अपने कई शिष्यों के साथ इस दुर्गम क्षेत्र में उत्तराखण्ड की तीन माह की यात्रा करते हुये बद्री क्षेत्र में पहुँचे। यहां शंकराचार्य ने अपने शिष्यों के साथ तप्त कुण्ड में स्नान किया और बद्रीनाथ जी के मंदिर में पूजा हेतु गये किन्तु वहां भगवान विष्णु जी की मूर्ति के स्थान पर उनके प्रतीक के रूप में शालग्राम शिला की पूँजा हो रही थी । शंकराचार्य ने उदास मन से उसकी पूजा की और बाहर आकर मंदिर के पुजारियों से पूछा कि मंदिर में भगवान बद्री विशाल की मूर्ति क्यों नहीं है? भगवान नारायण तो यहां हर युग में निवास करते हैं। तब मंदिर के पुजारियों ने कहा कि आचार्य हमारे पूर्वजों ने चीनी दस्युओं के अत्याचारों के कारण भगवान नारायण की मूर्ति को पास के ही किसी कुण्ड में छिपाकर रख दिया था किन्तु बाद में कई बार खोजने पर भी वह प्राप्त नहीं हो सकी तब से अभी तक इसी शालग्राम शिला को भगवान नारायण के रूप में पूजा जा रहा है।
शंकराचार्य पुजारियों की राज करने की है पहले आप मुझे राज करने का वरदान दीजिये। मैं राजा बनने के उपरांत आपकी विधिवत तरीके से यज्ञों के द्वारा पूजा करके मोक्ष प्राप्त करूंगा। राजा विशाल द्वारा बहुत आग्रह करने पर भगवान विष्णु जी ने उसका खोया हुआ राज्य लौटने का वरदान देते हुये कहा कि- “हे राजा तुम्हारा खोया राज्य तो तुम्हें प्राप्त होगा ही, तुम्हारी इस तपस्या से तुम्हारा नाम मेरे नाम के साथ पुकारा जावेगा अब से यह क्षेत्र बद्रीक्षेत्र के साथ-साथ “बद्रीविशाल” के नाम से भी जाना जावेगा जो भी व्यक्ति इस नाम का जयकारा लगावेगा उसे अक्षय पुण्य की प्राप्ति होगी।“ आज भी भगवान विष्णु की यह पुरी तीनों लोकों में दुर्लभ है यहां का पवित्र और सच्चे मन से किया गया स्मरण ही पापी मनुष्य मोक्ष प्रदान करता है। को
जमीन से 3133 मीटर की ऊँचाई पर आसमान की ऊँचाई को स्पर्श करते हुये पवित्र नर-नारायण पर्वत की गोद में अलकनंदा के दाँयें तट पर निर्मित बद्रीनाथ जी का मन्दिर चारों ओर से पहाड़ियों से घिरा हुआ है। बद्रीनाथ मन्दिर का निर्माणकाल महाभारत काल से पूर्व का माना जाता हैं। किन्तु भगवान विष्णु जी का यह वर्तमान मन्दिर अधिक प्राचीन नहीं है ऐसा कहा जाता है कि इस मन्दिर का निर्माण पन्द्रहवीं शताब्दी में श्रीरामानुजीय सम्प्रदाय के स्वामी बरदराचार्य जी की प्रेरणा से गढ़वाल राजा ने करवाया था। इस मन्दिर के ऊपर जो स्वर्ण कलश रूपी छतरी है उसके निर्माण के लिये गढ़वाल नरेश को इन्दौर की महारानी अहिल्याबाई ने भेंट स्वरूप धन प्रदान किया था।
बद्रीनाथ मन्दिर में दर्शन करने से पहले सभी तीर्थयात्री तप्त कुण्ड में स्नान करते हैं। उसके बाद मन्दिर की और प्रस्थान करते हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार जो यात्री केदारधाम की यात्रा नहीं करते और सीधे बद्रीधाम आते हैं उन्हें स्नान के बाद सर्वप्रथम सीढ़ियों के पास स्थित आदि केदारेश्वर मन्दिर में पूजा करनी होती है क्योंकि बद्रीनाथ धाम की यात्रा का फल तभी प्राप्त होता है जब तीर्थयात्री पहले यहाँ महादेव की पूजा अर्चना करें । भगवान केदारेश्वर के दर्शन के बाद बद्री क्षेत्र में भगवान नारायण के दर्शन से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। दर्शन करने वाले मनुष्य को जीवन मुक्ति प्राप्त
बात सुनकर ध्यान मग्न हो गये तब उन्हें आकाशवाणी से ज्ञात हुआ कि भगवान विष्णु जी की मूर्ति नारद कुण्ड में है। उसे निकालकर मनुष्यों को मोक्ष की प्राप्ति हेतु मंदिर में पुनः स्थापित कर भगवान नारायण का आशीर्वाद प्राप्त करें।
शंकराचार्य ने नारद कुण्ड में डुबकी लगाकर कुण्ड के अन्दर से भगवान विष्णु जी की मूर्ति निकाली। इस मूर्ति का दाहिना हाथ खण्डित था।। उन्होंने उस मूर्ति को अलकनन्दा नदी में विसर्जित कर के पुनः नारद कुण्ड में डुबकी लगाई। इस बार भी उन्हें वहीं मूर्ति प्राप्त हुई। उन्होंने इस तरह मूर्ति निकालने के कई प्रयास किये किन्तु हर बार उन्हें वही मूर्ति प्राप्त होती । मूर्ति देखकर शंकराचार्य दुविधा में पड़ गये तब देववाणी हुई कि – हे शंकर तुम दुविधा में मत पड़ो। इस कलयुग में मेरे इस भग्नविग्रह की ही पूजा मनुष्यों द्वारा की जावेगी।
देववाणी सुनकर शंकराचार्य उस मूर्ति को अपने कन्धे पर श्रद्धाभाव से रखकर नारद कुण्ड से बाहर आये। बाहर आकर शंकराचार्य ने पूर्ण विधि विधान तथा शास्त्र विधि के द्वारा उस शालिग्राम शिला पर बनी हुई मूर्ति को बद्री क्षेत्र के मंदिर में प्रतिष्ठित किया तथा अपने साथ के एक दक्षिण भारतीय नम्बूद्री ब्राह्मण को भगवान नारायण की मूर्ति की पूजा विधि का भार सौंपा। आज भी बद्रीनाथ मंदिर में भगवान की पूजा के लिये नम्बूद्री ब्राहम्ण पुजारी के रूप में कार्य करता है जो आजीवन ब्रह्मचारी रहता है। आज भी अलग-अलग जाति, धर्म, समाज के मनुष्य पूर्ण श्रद्धाभाव से हिमालय पर्वत पर स्थित इस मंदिर में भगवान के चरणों में शीश झुकाकर ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करते है।
देश तथा काल के अनुसार भगवान अन्य स्थानों का त्याग कर सकते हैं। किन्तु बद्रीनाथ धाम में भगवान हमेशा मौजूद रहते हैं इसी कारण घोर कलयुग में भी बद्रीनाथ धाम के दर्शन से ही मनुष्य को पापों से मुक्ति प्राप्त हो जाती हैं। मनुष्य किसी भी कामना से यहाँ आयें उसकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होती हैं बद्रीनाथ धाम तीनों लोकों में दुर्लभ हैं इसके स्मरण मात्र से ही अतिघोर पापी मनुष्य तत्काल पापरहित होकर मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है ।। तप, योग, समाधि तथा सम्पूर्ण तीर्थो में स्नान करने के बाद जो फल मनुष्य को प्राप्त होता है वही फल केवल बद्रीधाम के दर्शन मात्र से प्राप्त होते हैं।
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